मोटे अनाज बचा सकते हैं पहाड़ की जवानी और जमीन

Team PahadRaftar

मोटे अनाज बचा सकते हैं पहाड़ की जवानी और जमीन

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत विश्व में मोटे अनाजों के अग्रणी उत्पादकों में एक है और वैश्विक उत्पादन में भारत का अनुमानित हिस्सा करीब 41 फीसदी है। एफएओ के अनुसार, वर्ष 2020 में मोटे अनाजों का विश्व उत्पादन 30.464 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) हुआ। अकेले भारत में 12.49 एमएमटी मोटे अनाज का उत्पादन हुआ। यानी, कुल मोटे अनाज उत्पादन का 41 प्रतिशत अकेले भारत में उगता है। भारत ने 2021-22 में मोटा अनाज उत्पादन में 27 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, जबकि इससे पहले के वर्ष में यह उत्पादन 15.92 एमएमटी था।  भारत के शीर्ष पांच मोटा अनाज उत्पादक राज्य हैं राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और मध्य प्रदेश। मोटा अनाज निर्यात का हिस्सा कुल उत्पादन का एक प्रतिशत है। अनुमान है कि 2025 तक मोटे अनाज का बाजार वर्तमान 9 बिलियन डॉलर बाजार मूल्य से बढ़कर 12 बिलियन डॉलर हो जाएगा।भारत जिन प्रमुख देशों को मोटे अनाज का निर्यात करता हैं, उनमें संयुक्त अरब अमीरात, नेपाल, सऊदी अरब, लीबिया, ओमान, मिस्र, ट्यूनीशिया, यमन, ब्रिटेन तथा अमेरिका हैं। भारत द्वारा निर्यात किए जाने वाले मोटे अनाजों में बाजरा, रागी, कनेरी, जवार और कुट्टू शामिल हैं। मोटे अनाज आयात करने वाले प्रमुख देश हैं – इंडोनेशिया, बेल्जियम, जापान, जर्मनी, मेक्सिको, इटली, अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राजील और नीदरलैंड।वैश्विक परिदृश्य में मोटे अनाज के उत्पादन की बात करें तो यहां भारत सबसे आगे है। 2020 में, वैश्विक उत्पादन 30.5 मिलियन टन था। दुनिया भर में 32 मिलियन हेक्टेयर से अधिक भूमि में इसकी खेती की जाती हैं। भारत, नाइजर और चीन दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक हैं, जिनका वैश्विक उत्पादन में 55.0% से अधिक हिस्सा है। इनके बाद नाइजीरिया, माली और इथोपिया का नंबर आता है। बदलते जलवायु परिवर्तन के कारण हाल के वर्षों में, अफ्रीका में मोटे अन्न के उत्पादन में अचानक वृद्धि हुई है।मोटे अन्न का वैश्विक निर्यात 2019 में 380 मिलियन अमरीकी डॉलर से बढ़कर 2020 में 402.7 मिलियन अमरीकी डॉलर हो गया है। इसके प्रमुख निर्यातक देश अमेरिका, रूस, यूक्रेन, भारत, चीन, नीदरलैंड, फ्रांस, पोलैंड और अर्जेंटीना हैं। इन देशों का कुल निर्यात 2020 में 221.68 मिलियन अमरीकी डॉलर था। 2020 में मोटे अन्न का वैश्विक निर्यात 466.284 मिलियन अमरीकी डॉलर था।पुरानी पीढ़ियों में मोटे अन्न पोषण का अभिन्न अंग थे। हालांकि, पोषक तत्वों से भरपूर इन अन्नों का इस्तेमाल कम हुआ। न्यूटिषियन जरनल के अध्ययन के अनुसार भारत वर्ष के साल तक के बच्चे यदि 100 ग्राम बाजरा के आटे का सेवन करते हैं तो वह अपनी प्रतिदिन की आयरन (लौह) की आवश्यकता की पूर्ति कर सकते हैं। जो दो साल के बच्चे हैं वह इसमें कम मात्रा का सेवन करें।बाजरे का आटा विशेषकर भारतीय महिलाओं के लिए खून की कमी को पूरा करने का एक सुलभ साधन है। भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में महिलाएं एवं बच्चों में लौहतत्व (आयरन) एवं मिनरल (खनिज लवण) की कमी पाई जाती है। न्यूटिषियन हारवेस्टप्लस  विभागाध्यक्ष के अनुसार गेहूं एवं चावल से, बाजरा आयरन एवं जिंक का एक बेहतर श्रोत है।इस साल भी मोटे अन्न को प्रोत्साहित करने के लिए कई कार्यक्रम तय किए गए हैं। राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के स्थानीय उत्पाद के महत्व को रेखांकित करता हुआ यह नारा नेपथ्य में चला गया.।हमने अपने संघर्ष की परंपराओं के साथ ही अपनी उपज और खानपान की भी घोर उपेक्षा कर दी। परिणाम स्वरूप 2001- 2002 में जहां हम 1लाख31हजार हेक्टेयर पर्वतीय भूमि में मडुवे का उत्पादन करते थे ।वहीं 2019- -2020में यह आंकड़ा घटकर 92 हजार हेक्टेयर पर सिमट गया है. इसी प्रकार झुंगरे उत्पादन का क्षेत्रफल 67 हजार हेक्टेयर से घटकर 49 हजार हेक्टेयर हो गया है । जब हम इन दोनों उपज के क्षेत्रफल में कमी की बात करते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर खरीफ की इन फसलों से जुड़े अन्य अनाज जो कि महत्वपूर्ण दलहन हैं, जिसमें गहत,भट, उड़द, तिल , तूर ,राजमा ,रामदाना की उपज के प्रतिशत में कमी भी शामिल होती है. इन मोटे आनाजो के उत्पादन में कमी से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को कितनी चोट पहुंची होगी इसका हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। कुल मिलाकर यह दोनों आनाज उत्तराखंड की अस्मिता के आधार हैं। इन दोनों ही अनाजों के उपज के क्षेत्रफल में राज्य गठन के बाद लगभग 30प्रतिशत की कमी हुई है। इस 30 प्रतिशत की कमी को सीधे तौर पर उत्तराखंड के आज के सबसे बड़े संकट “पलायन और बंजर “होती पर्वतीय खेती से सीधे तौर पर जोड़ कर देखा जा सकता है। बंजर होती खेती से जहां खेत जंगल में समा गए हैं, वहीं बंदर और लंगूर हमारे घरों तक पहुंच गए हैं, कुल मिलाकर पर्वतीय लोक जीवन में अपनी कृषि की उपेक्षा से जो सामाजिक संकट उत्पन्न हुआ है ।उसे हम अपनी पहचान के अनाजों के महत्व को समझ कर उसके उत्पादन को बढ़ाकर ही बचा सकते हैं।अपने परंपरागत अनाजों की खेती को बढ़ावा देकर हम एक साथ कई मोर्चों पर विजय हासिल कर सकते हैं ।ऐसा करते हुए हमें इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि आजादी से पहले जब देश में पी.डी.एस ब्यवस्था लागू नहीं थी, तब भी पर्वतीय क्षेत्र अपने खाद्यान्न की समस्या का समाधान स्वयं करता था ,अर्थात हम कृषि क्षेत्र में आत्म निर्भर थे.1936 में अल्मोड़ा में बोसी सेन द्वारा स्थापित विवेकानंद कृषि अनुसंधान शाला ने पर्वतीय कृषि ,बीज और तकनीक के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया । लेकिन 1974 में इस संस्थान की स्वायत्तता और स्थानीय स्वरूप इसके कृषि अनुसंधान परिषद में विलय के बाद समाप्त हो गया, इसके बाद यहां स्थानीय उपज और बीजो पर काम का सिलसिला कम हुआ जिसने आगे जाकर उत्तराखंड की परंपरागत कृषि व बीज जिसे हम बारहा नाजा के नाम से जानते हैं। पर संकट खड़ा कर दिया.परंपरागत बीज और खेती के ऊपर यह संकट सिर्फ उत्तराखंड में नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ झारखंड ,आसाम ,आंध्र प्रदेश जैसे उन तमाम कृषि आधारित आदिवासी क्षेत्रों में भी उत्पन्न हुआ, जिनकी अपनी अलग स्थानीय पहचान थी ।यह संकट अंतरराष्ट्रीय खाद और बीज के नैकस्स के षड्यंत्र से उत्पन्न हुआ यह नैक्सस जो कि कृषि सुधारों के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों पर लाया गया बहुराष्ट्रीय खाद -बीज कंपनियों की व्यापारिक महत्वाकांक्षा के कारण उत्पन्न हुआ.।1975 के आसपास से पर्वतीय क्षेत्रों ,तथा भाबर में सोयाबीन ने हमला बोला था तब टिहरी में खाड़ी की आत्मनिर्भर घाटी में गांधीवादी श्री धूम सिंह नेगी, श्री विजय जडधारी,श्री प्रताप शिखर, कुंवर प्रसून आदि की टीम ने इस संकट को पहचाना और पूरे क्षेत्र में परंपरागत बाराहा नाजा को बचाने की एक मुहिम छेड़ी ,जिसमें परंपरागत बीजो की अदला- बदली के लिए बीज यात्राएं निकाली गई। बीजो की अदला बदली हमारी पीढ़ियों से अर्जित ज्ञान है ।जो फसल की उत्पादकता को कम नहीं होने देता. कुल मिलाकर संक्षेप में अगर कहें तो मडुवा झुंगरा जो पहाड़ की पहचान है ,उसको सही अर्थों में पहचान कर ही उसके उत्पादन के लिए विशेष प्रयास करके हम उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की पलायन ,और बंजर होती खेती तथा युवाओं के रोजगार जैसे कई सवालों का एक साथ समाधान कर सकते हैं।हाल के सालो में केंद्र सरकार ने भी मोटे अनाजों के संरक्षण की नीति बनाई है जिसके तहत कुछ महत्वपूर्ण फैसले दिसंबर 2021 में लिए हैं। जिसके तहत एफ.सी.आई इन मोटे अनाजों का विपणन करेगी और वितरण भी ,साथ ही मोटे अनाजों के संग्रह की तिथि से 3 माह के भीतर बिक्री की जो पुरानी शर्त थी । उसे बढ़ाकर अब सात से आठ माह कर दिया गया है ।जिससे निश्चित रूप से व्यापार के लिए इन आनाजो को अधिक समय मिलेगा। अब राज्य सरकार को चाहिए पहाड़ की अस्मिता के एल अनाजों जोकि पर्वतीय कृषि का आधार हैं और बागवानी के विकास के लिए अलग से विशेष प्रयास करें।
जिसमें विशेषज्ञों की एक अनुसंधान परिषद बनाएं जो स्वाभाविक रूप से पहाड़ की जैविक खेती को जैविक प्रमाणन का प्रमाण पत्र तथा किसानों को आवश्यक प्रशिक्षण भी प्रदान करने का काम करे , इन केंद्रों का संचालन कृषि सेवा सेवा केंद्रों के साथ भी किया जा सकता है। पिछली सरकार ने इन मोटे अनाजों के संरक्षण के लिए कुछ कदम उठाए थे ,जिसके परिणाम स्वरूप ₹10 किलो बिकने वाला मडुवा अब गांव से ही 30 से 35 रुपए किलो तक बिक रहा है।दिल्ली में जिसकी कीमत ₹50 किलो है, जबकि आपूर्ति पूरी नही है, 2020 में 200टन मडुवा,झुंगरा हिमालयन मिलेट नाम से डेनमार्क को निर्यात किया गया है ।अन्य यूरोपीय बाजारों में भी इसकी मांग बढ़ रही है और यह सब उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के लिए एक शुभ समाचार है । अगर हमारी सरकारें इस दिशा में जागरूक होती हैं,तो पहाड़ में बंजर हो रही खेती की भूमि पर सरकारी सहायता से ‘सहकारी समितियों” के माध्यम से सामूहिक खेती करती है ,तो निश्चित रूप से यह पहाड़ की जमीन और जवानी को बचाने वाला कदम होगा । लेकिन उससे पहले इन मोटे अनाजों का सवाल ,चुनाव में शामिल होना जरूरी है। साथ ही जरूरी है इन स्वास्थ्य वर्धक मोटे अनाजों को अपने भोजन में शामिल करना

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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