राजभवन और मुख्यमंत्री के देहरी से चमोली पहुंची ग्वालों की भेंट !
ग्वालों की पूजा के साथ ही , फूलों का पर्व फूल – फूल माई, फूलदेई के विसर्जन की अनूठी परम्परा ।
चैत्रमास की मीन संक्रांति को आरंभ हुए फूल-फूलमाई , फूलदेई पर्व अब पहाड़ से लेकर मैदानों तक बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने लगा है । ढाई – तीन दशक पहले तक यह बाल पर्व विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया था । जिसके बाद सन 2003 में सीमांत जनपद चमोली मुख्यालय गोपेश्वर व आसपास के मैठाणा, पपड़ियाणा, पाडुली, वैरागणा, देवलधार, पलेठी सहित दर्जनों गांवों में बच्चों के समूह बनाकर फूलदेई मनाने की शुरुआत की थी । फिर इस पर्व को प्रत्येक वर्ष राजभवन और मुख्यमंत्री की देहरियों से मनाने की परम्परा भी वर्ष 2014 से समाजसेवी संस्कृतिप्रेमी शशि भूषण मैठाणी पारस ने ही आरंभ की थी ।
फूलदेई के बाद अब ग्वालपुज्ये संरक्षण की भी मुहिम शुरू की मैठाणी ने !
फूलदेई संरक्षण अभियान के सफलतम सत्रह वर्ष पूरे होने के बाद अब यूथ आइकॉन क्रिएटिव फाउंडेशन के संस्थापक व संस्कृति प्रेमी शशि भूषण मैठाणी पारस द्वारा फूलदेई विसर्जन कार्यक्रम ग्वालपूजा संरक्षण अभियान को भी शुरू कर दिया है । इस अवसर पर उत्तराखंड के राज्यपाल व मुख्यमंत्री द्वारा फूलदेई के अवसर पर भेंट किए गए गेंहू, चावल व गुड़ को यशस्विनी मैठाणी ने देहरादून से आकर गांव की महिलाओं को सौंपा । जिसके बाद राजभवन व मुख्यमंत्री आवास से शगुन में पहुंची भेंट को सामूहिक भोज के साथ पकाया गया व ग्रामीणों में वितरित किया गया ।
“हर ड्येळी, एक डाली” पर्यावरण संरक्षण मुहिम का भी हुआ शुभारंभ !
इसी क्रम में आज शशि भूषण मैठाणी पारस ने अब पर्यावरण संरक्षण अभियान को नया नाम दिया है उन्होंने बताया कि मुहिम “हर ड्येळी (देहरी), एक डाली (वृक्ष)” के तहत एक अभियान चलाया जाएगा जिसका उद्देश्य यह होगा कि प्रत्येक घर आंगन में एक वृक्ष अवश्य हो । खासकर बसंत के आगमन उस पर जिन वृक्षों में पुष्प खिलते हों, ऐसे में पुष्प वृक्षों में अमलतास, स्थलपद्म, गुलमोहर को विशेष अभियान के तहत रोपा जाएगा । साथ ही स्थानीय जलवायु के अनुकूल पौधों में बांज, देवदार, रुद्राक्ष, शहतूत, आंवला को भी रोपा जाएगा । आज मैठाणा में अभियान की शुरुआत में शहतूत के अलावा फलदार पौधों को रोपा गया । और जल्दी ही पूरे प्रदेश व देश के अन्य हिस्सों में भी यह अभियान चलाया जाएगा ।
शशि भूषण मैठाणी पारस ने बताया कि आने वाले समय में फूलफूल माई, फूलदेई पर्व बड़े व्यापक स्तर पर मनाया जाने लगेगा । तब फूलों के अत्यधिक दोहन से पर्यावरण की क्षति न हो उसे ध्यान में रखते हुए अब हर घर पुष्प वृक्ष रोपण का अभियान चलाए जाने की मुहिम आरम्भ कर दी गई है । यूथ आइकॉन क्रिएटिब फाउंडेशन के रंगोली आंदोलन मुहिम के तहत आगामी वर्ष 2022 की फूलदेई तक 51 हजार घरों की देहरियों तक पुष्प वृक्षों के रोपण का लक्ष्य रखा गया है ।
आइए जानते हैं – क्या है ग्वाल पुज्ये (ग्वाल पूजा) :
चैत्रमास की मीन संक्रांति को हिमालयी पर्व फूलफूल माई फूलदेई के अवसर पर बच्चे घर घर जाकर देहरी पर फूल डालते हैं । इन बच्चों को इस दिन भगवान कर रूप में माना जाता है । द्वार पर आए बच्चों को चावल, गेंहू, गुड़ भेंट किया जाता है । जिसके बाद घर वापस लौटने पर, बच्चे उपहार में मिले चावल गुड़ आदि को अपनी-अपनी माताओं के सपुर्द करते हैं । माताएं उस भेंट को ईश्वर का वरदान मानकर 20 दिनों तक भगवान के समक्ष रख देती हैं और अपने घर में धन धान्य की कामना कर पूजा अर्चना करती हैं ।
20 वें दिन में सभी ग्रामीण एक साथ गांव से दूर जंगल अथवा छानी (गौशाला) में जाती हैं और बच्चों को भी साथ ले जाकर उनके द्वारा फूलदेई पर एकत्र किए गए अनाज का सामूहिक भोज पकाकर ईश्वर को भोग लगाकर फिर सभी ग्रामवासी परसाद के रूप में भोज ग्रहण करते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण की ग्वाल बाल संग पूजा !
आज ग्वाल पूजा के दिन, जंगल में ग्वालों द्वारा सामूहिक रूप से रंग विरंगे फूलों से भगवान कृष्ण का डोल (झूला) सजाया जाता है । बच्चे बारी-बारी झूले में कृष्ण भगवान को झूला झुलाते हैं, तो दूसरी ओर माताएं ग्वालों का भोजन तैयार करती हैं ।
बाघ और विषैले पौधों की पूजा की जाती है !
गांव की बुजुर्ग महिला द्वारा जंगल में भगवान श्री कृष्ण के समक्ष प्रार्थना कर मवेशियों के लिए घातक जानवरों में बाघ, सांप के अलावा जहरीले घास में अंयार का आह्वाहन कर उन्हें आमंत्रित किया जाता है ।
फिर बच्चों में से ही अलग-अलग रूप में उक्त जानवर व घास जानवर व जहरीले घास के रूप मे अवतरित होते हैं । इनकी पूजा बुजुर्ग माता द्वारा की जाती है । सबको बारी बारी पूछा जाता है कि ..
हे बाघ क्या तू मेरी गायों को खाएगा .. तो पहले वह हाँ बोलता है .. बुजुर्ग माता जले हुए ओपले से उसको भगाती है तो फिर, जानवर खीर व पकवान मांगता है .. माता उससे वचन लेती है कि अगर तू मेरे गायों को नुकसान नहीं करेगा तो मैं खिलाऊंगी .. हंसी ठिठोली के बीच यह सब संवाद चलता है । अंत में सभी महिलाएं बाघ, सांप, व जहरीले घास अंयार की पूजा करती हैं उन्हें टीका लगाकर गांव की सीमा से बाहर जाने का अनुरोध करती हैं और भगवान श्रीकृष्ण को भोग लगाकर कर गांव की सुख समृद्धि की कामना करती हैं ।
आस्था और विज्ञान ग्वाल पूजा के दूसरे दिन से ही गायों को दिया जाता है हरा घास !
मनुष्य व प्रकृति के बीच, आस्था और विश्वास का पर्व भी है यह
इस आस्था में कहीं न कहीं विज्ञान का रहस्य भी समाहित है । यह सर्वविदित है कि पतझड़ के बाद रूखे सूखे पेड़ पौधे पर बसंत के आगमन के साथ ही नई – नई कोंपलें व रंग विरंगे फूल खिलने लगते हैं । यह सब भले आप हमको देखने में आकर्षक लग सकते हैं लेकिन सच यह भी है कि इनमें ऐसे वक़्त कई तरह के विषैले तत्व भी मौजूद होते हैं । पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी बसंत के वक़्त अंयार, बांज, खड़ीक, क्विराल आदि इत्यादि की हरी घास मवेशियों को देना वर्जित होता है । इस मौसम की हरी घास जानवरों के लिए जहर मानी गई है ।
चैत्रमास की मीन संक्रांति फूलदेई के 20 दिवस के पश्चात ग्वाल पूजा के दिन से मवेशियों को सभी प्रकार की घास देना शुरू कर देते हैं ।