कविता मैठाणी भट्ट : पहाड की जादुई आवाज में लोक की खनक, दादू अब किले नि दिंखेदू डांडियों मा चौमास गीत लोगों को खूब भा रहा – सुनिए गीत

Team PahadRaftar

कविता मैठाणी भट्ट : पहाड की जादुई आवाज में लोक की खनक, दादू अब किले नि दिंखेदू डांडियों मा चौमास गीत लोगों को भाया.

ग्राउंड जीरो से संजय चौहान!

चमोली : बीते एक पखवाडे से डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दादू अब किले नि दिंखेदू डांडियों मा चौमास गीत बेहद लोकप्रिय हो रहा है। ये गीत पहाड़ के यथार्थ, हकीकत और वर्तमान परिदृश्य को चरितार्थ करता हुआ नजर आ रहा है। इस गीत के बोल और संगीत बेहद कर्णप्रिय बना है। अखोडी (टिहरी) के राजा बिष्ट द्वारा लिखित इस गीत को आवाज देने वाली केदार घाटी की गायिका कविता मैठाणी भट्ट नें अपनी जादुई आवाज में लोक की मिठास और खनक से जिस तरह से इस गीत को गाया है उसने इस गीत को बेहद मार्मिक और पसंदीदा गीत बना दिया है। बीते एक पखवाडे में ही 3 लाख 7 हजार लोग इस गीत को देख चुके हैं, जबकि डिजिटल प्लेटफॉर्म, फेसबुक, वट्सएप, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर हजारों रील भी इस गीत पर अब तक बन चुके हैं।

गौरतलब है कि केदार घाटी की पेशे से शिक्षिका व गायिका कविता मैठाणी भट्ट विगत दो दशको से लोकगायन, काव्यपाठ और पार्श्व गायन का कार्य कर रही हैं। कविता उत्तराखंड की लोक संस्कृति और साहित्य की मजबूत स्तम्भ हैं। पहाड़ के लोक को चरितार्थ करती हुई उनकी मखमली, जादुई आवाज हर किसी को मंत्रमुग्ध कर देती है। कुछ दिन पहले कै द्योला नंदा.. नंदा सीरीज के पहले गीत में कविता मैठाणी भट्ट नें
गंगा तौरी आलु
डांडा नीसि केरी आलु
धौणी कुहेडी छंट्योलू
तब मेतुडा भैंट्योलू.. पंक्तियों को गाया है वो बेहद ही कर्णप्रिय बना है। आपको भी समय लगे तो जरूर सुनिये इस गीत को।

कौन है कविता मैठाणी भट्ट

कविता मैठाणी भट्ट मूल रूप से चौंड, अगस्त्यमुनि, जनपद रुद्रप्रयाग की निवासी है। जबकि मायका ब्राह्मणखोली, ऊखीमठ , रुद्रप्रयाग है। कविता की प्रारंभिक से लेकर इंटरमीडिएट की शिक्षा ऊखीमठ से पूरी हुई। एचएनबी श्रीनगर से बीएससी और एमए(हिंदी) की शिक्षा ग्रहण की। बीटीसी करने के उपरांत कविता जुलाई 2003 में बतौर शिक्षिका सरकारी सेवा में आ गयी। इससे खुशी की बात कविता के लिए क्या हो सकती थी जन्मभूमि ही उनकी कर्मभूमि बनी और पहली तैनाती भी ऊखीमठ ब्लाॅक में मिली। कविता की आवाज में साक्षात सरस्वती का वास है।

कविता मधुर आवाज की धनी है इसलिए उन्हे पहाड़ की स्वर कोकिला के नाम से भी जाना जाता है। कविता भट्ट अपने विद्यालय में अध्ययनरत छात्र छात्राओं को लोक संस्‍कृति व बोली भाषा की दीक्षा देती है, उनकी कोशिश होती है कि शिक्षा ग्रहण करने के बाद चाहे कोई कहीं भी रहे लेकिन अपनी जडों को न भूले इसलिए वो गुणवत्तापरक शिक्षा के साथ साथ सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और संवर्धन के लिए भी कार्य करती है।

परिवार से विरासत में मिली लोकसंगीत की समझ, केदार घाटी के लोकजीवन नें पहाड से कराया आत्मीय लगाव!

लोकसंगीत पर शिक्षिका कविता भट्ट के साथ लंबी परिचर्चा हुई। जिसमें उन्होने बताया की उन्हें संगीत का शौक- बचपन से था। जबसे होश संभाला तो वो गुनगुनाती रहती थी। उन्होंने संगीत की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली। बस गीत गाने से सुकून मिलता था। उन्हें जो भी गीत पसंद आता था गुनगुना लेती थी। गढ़ गौरव नेगी जी के गीतों को सुनकर बड़े हुए हैं। घर में चाचाजी डा० शशि भूषण मैठाणी, बड़े भाई डा० शैलेन्द्र मैठाणी, रजनीकान्त मैठाणी सब संगीत प्रेमी रहे तो उनका प्रभाव भी पड़ा। बाकी जितना भी सीखा है प्रकृति व अपने पहाड़ के सान्निध्य में ही सीखा है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कविता को अपने परिवार से विरासत में मिला लोकसंगीत की समझ।

बहुमुखी प्रतिभा की धनी है कविता!

कविता बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। पेशे से शिक्षिका है तो। एक बेहतरीन कवियत्री है तो पार्श्व गायिका भी। चक्रव्यूह, कमलव्यू, बगडवाली में पार्श्व गायन के जरिए कविता मंचन को जींवत कर देती हैं वहीं विभिन्न अवसर पर आयोजित होने वाले कवि सम्मलेन में अपनी मार्मिक कविताओं से लोगो को भावुक कर देती हैं। मी उत्तराखंड ब्वनू चि, क्वी मेरी भी खेरी सुणा, क्वी मेरू भी दुख देखा.. गीत से शुरू हुआ सफर… गंगा तौरी आलु, डांडा नीसि केरी आलु, धौणी कुहेडी छंट्योलू, तब मेतुडा भैंट्योलू.. तक जारी है। अपने विद्यालय में फुलारी महोत्सव हो या फिर ऊखीमठ में फूलदेई त्यौहार का भव्य आयोजन कविता की अपनी संस्कृति के प्रति समर्पण उन्हे सदैव अलग पंक्ति में खडा करता है।

कविता के गीतो, कविताओं में प्रकृति और उनके लोक का प्रभाव!

कविता के गीतो, कविताओं में प्रकृति और उनके लोक का प्रभाव साफ प्रलक्षित होता है। कविता का बचपन से लेकर वर्तमान जिस भूमि पर बीता है वो भगवान शिव का भव्य धाम हैं, जहां वर्षभर हिमालय के पांच केदार एक साथ दर्शन देते हैं। पंचकेदार यानी भगवान केदारनाथ, द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, तृतीय केदार तुंगनाथ, चतुर्थ केदार रुद्रनाथ व पंचम केदार कल्पेश्वर एक साथ दर्शन देते हैं। यहां की सबसे खास बात यह कि यहां प्रकृति का भी अद्भुत नजारा देखने को मिलता है। यहां प्राकृतिक सुंदरता सर्वत्र बिखरी हुई है। यहां की सुरम्य वादियां, ठीक सामने नजर आने वाली चौखंभा पर्वत की हिमाच्छादित चोटियां और बांज-बुरांश के जंगल हर किसी का मन मोह लेते हैं। मान्यता है कि शिव भक्त बाणासुर की बेटी उषा व भगवान कृष्ण के पोते अनिरुद्ध की शादी इसी स्थान पर हुई थी। इसलिए इस तीर्थ को देवी उषा के नाम पर उषामठ कहा जाने लगा। कालांतर में उषामठ का अपभ्रंश होकर पहले इसका नाम उखामठ और फिर ऊखीमठ नाम पड़ा। यही नहीं, गुनगुनी धूप का आनंद उठाने के लिए भी पर्यटक बड़ी संख्या में यहां पहुंचते हैं। शीतकाल में ऊखीमठ के आसपास ऊंची पहाड़ियों पर बर्फबारी का नजारा भी देखते ही बनता है। ऊखीमठ की तलहटी में बहने वाली अठखेलियाँ खेलती – बहती हुई मधु गंगा का कलरव भी कविता भट्ट के लिए नयें सृजन की पाठशाला बनी। बकौल कविता भट्ट जो भी सीखा है प्रकृति व अपने पहाड़ के सान्निध्य में ही सीखा है।

वास्तव मे देखा जाय। पहाड अगर आज भी अडिग खडा है तो ऐसी ही बेटियों के विश्वास, भरोसा और मेहनत से। पहाड की मात्रशक्ति ही पहाड की आर्थिकी और जीवन रेखायें हैं। कविता भट्ट जैसी बेटियों की वजह से हम अपने रीति-रिवाज और परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने में सफल हो पायें हैं वरना जिस तरह से पहाड पर पलायन का घुन लगा है उससे न केवल पहाड बल्कि पहाड की लोक संस्कृति पर संकट आन पडा है।

 

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