उत्तराखंड हिमालयी रेंज में तेजी से बढ़ रहा भूस्खलन
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालयी क्षेत्र में जहां भूस्खलन का खतरा ज्यादा है, वहीं देश के अन्य हिस्सों में भी इसका खतरा बढ़ रहा है। केरल में मलप्पुरम, त्रिशूर, पलक्कड़ और कोझीकोड, जम्मू-कश्मीर में राजौरी और पुंछ और दक्षिण और पूर्वी सिक्किम देश के अन्य सबसे अधिक प्रभावित जिले हैं।पिछले दो दशकों में एकत्र किए गए उपग्रह आंकड़ों के अनुसार, के दो जिले रुद्रप्रयाग और टिहरी भूस्खलन के सबसे अधिक जोखिम का सामना कर रहे हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों से पता चला है कि रुद्रप्रयाग और टिहरी गढ़वाल में भूस्खलन का सामना करने का सबसे अधिक खतरा है, जहां पिछले 20 वर्षों में भूस्खलन की सबसे अधिक घटनाएं हुई हैं हैदराबाद स्थित इसरो सुविधा राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा संकलित निष्कर्ष, भूस्खलन एटलस ऑफ इंडिया में प्रकाशित किए गए थे। एजेंसी ने 1998 और 2022 के बीच देश में 80,000 से अधिक भूस्खलनों का डेटाबेस बनाने के लिए इसरो उपग्रहों के डेटा का उपयोग किया। टीम ने तब इस डेटा का उपयोग 17 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में भूस्खलन प्रभावित 147 जिलों को रैंक करने के लिए किया। रुद्रप्रयाग और टिहरी गढ़वाल में तीर्थ मार्गों और पर्यटन स्थलों की उपस्थिति के कारण “देश में भूस्खलन का अधिकतम जोखिम” है। यह जिला केदारनाथ मंदिर और तुंगनाथ मंदिर और मध्यमाहेश्वर मंदिर जैसे अन्य धार्मिक स्थलों का घर है।रुद्रप्रयाग शहर भी नदी संगमों की उपस्थिति के कारण एक पवित्र शहर है। हालांकि जिले में 32 पुराने भूस्खलन क्षेत्र भी हैं, जिनमें से बड़ी संख्या में एनएच -107 के साथ या उसके आसपास स्थित हैं जो शहर में जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत उन चार देशों में शामिल है जहां भूस्खलन का खतरा सबसे अधिक है। देश के पूरे भू-भाग का लगभग 13 प्रतिशत भाग भू-स्खलन की चपेट में है। वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन से स्थिति बदतर हो जाती है, क्योंकि वन आवरण मध्यम भूस्खलन की सीमा को रोकने और कम करने में मदद करता है।दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के कारण भारी वर्षा जैसी चरम मौसम की घटनाएं मिट्टी के क्षरण को बढ़ाती हैं और सीधे भूस्खलन का कारण बन सकती हैं। भूस्खलन मौतों के मामले में तीसरी सबसे खतरनाक प्राकृतिक आपदा है और आने वाले वर्षों में जीवन और बुनियादी ढांचे के नुकसान को रोकने के लिए तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता है दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय में हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं खतरा बनी हुई हैं। नवंबर-2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा। यही नहीं, वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम न हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों। जाहिर है कि जंगल की परिभाषा में बदलाव का असल इरादा ऐसे कई इलाकों को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कि कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं। उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए। मामला एनजीटी में भी गया लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे। सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी से भी गुजर रहा है। उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाने का प्रावधान है। इधर ऋषिकेश से कर्णप्रयाग और वहां से जोशीमठ तक रेलमार्ग परियोजना, जो कि नब्बे फ़ीसदी पहाड़ में छेद कर सुरंग से होकर जायेगी, ने पहाड़ को थर्रा कर रख दिया है।सनद रहे, हिमालय पहाड़ न केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती है। यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंडरी पर तनाव ऊर्जा संगृहीत हो जाती है, जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरूपण होता है। ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है। जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ होती है तो भूकंप के खतरे बढ़ते हैं। दरअसल, जीवनशैली में बदलाव व पहाड़ों में जलापूर्ति बढ़ने से समस्याएं बढ़ी हैं। बेकार गए पानी को बहने के लिए रास्ता भी चाहिए। अब पहाड़ों की ढलानों पर बसे मकानों के नीचे नालियों की जगह जमीन काट कर पानी तेजी से नीचे आने लगा, इससे न केवल आधुनिक कंक्रीट वाले, बल्कि पारंपरिक मकान भी ढहने लगे। यही नहीं, ज्यादा पैसा बनाने के लोभ ने जमीनों पर कब्जे, दरिया के किनारे पर्यटकों के लिए आवास का लालच भी बढ़ाया। पहाड़ों पर बढ़ते तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के दबाव से भी पर्यावरणीय चुनौतियां बढ़ी हैं। उत्तराखंड में हिमालय के अस्तित्व पर मंडराया खतरा! काले साए ने बढ़ाई वैज्ञानिकों की चिंता हिमालय के अस्तित्व पर खतरे के संकेत यूं तो वैज्ञानिकों को काफी लंबे समय से परेशान करते रहे हैं, लेकिन इन दिनों अनचाहे काले साए ने हिमालय की सफेद चोटियों पर पहुंचकर वातावरण में कुछ नए बदलाव को लाने की आशंका बढ़ा दी है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और इससे हिमालय के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है. क्या है यह काला साया और हिमालयी ग्लेशियर कैसे खतरे में हैं। उत्तराखंड में हिमालय के अस्तित्व पर मंडराया खतरा। काले साए ने बढ़ाई वैज्ञानिकों की चिंता हिमालय के अस्तित्व पर खतरे के संकेत यूं तो वैज्ञानिकों को काफी लंबे समय से परेशान करते रहे हैं, लेकिन इन दिनों अनचाहे काले साए ने हिमालय की सफेद चोटियों पर पहुंचकर वातावरण में कुछ नए बदलाव को लाने की आशंका बढ़ा दी है। शोध करने वाले वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, देहरादून के वैज्ञानिकों के मुताबिक, हिंदुकुश पर्वत से पूर्वोत्तर भारत तक का हिमालयी क्षेत्र भूकंप के प्रति बेहद संवेदनशील है। उसके खतरों से निपटने के लिए संबंधित राज्यों में कारगर नीतियां नहीं हैं जो बेहद चिंताजनक है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी है कि भूकंप के प्रति संवेदनशील इलाकों में वृद्धि के कारण हिमालय क्षेत्र की जनसांख्यिकी में भी बदलाव आ सकता है। विशेषज्ञों ने हिमालय क्षेत्र में एकत्र हो रही भूगर्भीय ऊर्जा और नए भूस्खलन जोन के मद्देनजर सुरक्षित स्थानों को चिन्हित करने की सलाह दी है