योग: कर्मसु कौशलम् – लेख शशि देवली गोपेश्वर

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” योग: कर्मसु कौशलम् “

योग जिसका अर्थ है जुड़ना। व्यावहारिक स्तर पर हम कह सकते हैं कि भावनाओं को संतुलित करने और तालमेल बनाने का एक साधन और क्रिया है योग। योगाभ्यास व साधना जो कि पहले हमारे बाह्य शरीर और उसकी बनावट को सुडौल और सुव्यवस्थित करने का काम करता है, मांसपेशियों को अंदरूनी ताकत से शारीरिक क्षमता में बदलाव लाता है लेकिन धीरे-धीरे मानसिक और भावनात्मक स्तरों पर भी काम करता है।आज के तनावपूर्ण वातावरण और कई अनर्गल बातचीत के परिणाम स्वरूप मानसिक स्वास्थ्य में दिक्कत का होना स्वाभाविक है किन्तु योग सिद्धि ही वह विधि है जिसके साथ तनाव जैसी स्थिति से बचा जा सकता है।
वर्तमान समय में जो हम योग को मात्र एक साधन के रूप में अपनाते हैं वहीं भविष्य में यह हमारी साधना और संस्कृति है जिसके फलस्वरूप हम जीवन दर्शन और तत्वों के मूल्यों को जानने और खोजने में सक्षम हो पाते हैं।


सम्पूर्ण संसार और जीव जगत की परिकल्पना भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को बताए गए अट्ठारह प्रकार के योग की धारणा पर टिका है और यह भी चिर सत्य है कि साधारण मनुष्य इसकी कल्पना से भी परे है।
अपने सूक्ष्म ज्ञान व कुछ साधकों के मुख से सुनी हुई बातों के अनुसार जितना समझ सकी वही लिखने का प्रयास कर रही हूं।मेरी अनुभूति प्रयासमात्र है जो कर्म के मार्ग को बतलाती है और सुपथ की कल्पना करती है।अन्तर्ध्वनि विहीन मन खालीपन महसूस करता है जो हमेशा एक नाद और तरंग में प्रवाहित होना चाहता है मगर मन की एकाग्रता बाह्य जगत के कोलाहल को भी अपने अंदर समा लेती है।
विभिन्न योग साधनाओं से युक्त मनुष्य परमात्मा को पाने की या उसमें मिल जाने को ध्यान योग और भक्ति योग से ज्ञान योग की तरफ अग्रसर होता है।जीवन जगत एवं सम्पूर्ण जैविक व अजैविक संसार इन साधनों को क्षण में पा लेने को व्याकुल रहता है किन्तु क्षणभंगुर संसार की जीवटता बड़ी कठिन है जो साधकों की समय – समय पर परीक्षा भी लेती है और भौतिक सुखों की तरफ ध्यान भी आकर्षित करती है। लेकिन आसक्ति को छोड़कर सफलता और निष्फलता के विषय में समान भाव रखकर समता को ही योग कहा जाता है।

” समत्वं योग उच्यते “

मनुष्य अपनी साधना लगन और ईश्वर के प्रति भावनात्मक लगाव से ही प्रभु के करीब जाता है।और परमशांति का अनुभव करता है। ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा और भक्ति के द्वारा जब वह एकाग्र हो सच्चाई का स्वरूप अपनाता है तो वही उसका पुरुषार्थ कहलाता है। अतः व्यक्ति के अंदर पुरुषार्थ खोजने के लिए ज्ञान और तप अति आवश्यक पहलू है जो भक्ति का मार्ग बतलाएगा और भक्ति मार्ग पर चलकर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।
श्रीमद् भगवदगीता के अनुसार-
जो किसी से द्वेष नहीं करता,जो करुणा का भण्डार है,जिसके लिए सुख दुख सर्दी गर्मी समान है ,जो क्षमावान है,जो सदा सन्तुष्ट रहता है,जिसके निश्चय कभी नहीं बदलते , जिसने अपना मन और बुद्धि ईश्वर को अर्पण कर दिए हैं , जो लोगों से डरता नहीं ,जो हर्ष,शोक,भय,आदि से मुक्त है,जो पवित्र है,जो कार्यदक्ष होते हुए भी तटस्थ है, जो शत्रु और मित्र दोनों के प्रति समान भाव रखता है , जो एकांत प्रिय है और जिसकी बुद्धि स्थिर है वह भक्त है और अद्वितीय तथ्य तो यही है कि जहां देह है वहां कर्म है।
(अपने मस्तिष्क की कुछ बिखरी हुई बातों को अपने सूक्ष्म ज्ञान के अनुरूप ही यहां एकत्र करने का प्रयास किया है गलतियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूं)

सर्वाधिकार सुरक्षित
शशि देवली गोपेश्वर चमोली उत्तराखण्ड

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