उत्तराखंड : पोषक तत्वों से भरपूर कोदा – झंगोरा, हृदय व मधुमेह रोगियों के लिए वरदान

Team PahadRaftar

पोषक तत्वों से भरपूर कोदा – झंगोरा, हृदय व मधुमेह रोगियों के लिए वरदान

हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड : कोदो-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’ नारा 1990 के दशक में उत्तराखंड की स्थापना के लिए आंदोलन के दौरान प्रचलित था. औषधीय वनस्पतियों के लिए मशहूर देश का उत्तराखंड राज्य पौष्टिक अनाजों के लिए भी जाना जाता है। इन्हीं अनाजों की श्रृंखला में ‘मडुवा/मंडुवा’ की। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की परंपरागत फसलों में एक प्रमुख स्थान रखने वाला अनाज है ‘मंडुवा’। मडुवे का वैज्ञानिक नाम ‘एलुसिन इंडिका’ है। इसे रागी व कोदा नामों से भी जाना जाता है। जो प्राकृतिक संतुलन बनाने में मददगार तो होता ही है, साथ ही गरीब कुनबों का संतुलित आहार भी होता है। प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व भरे रहने से मडुवा कई बीमारियों को मात देने में सक्षम होता है और ताकतवर शरीर बनाने में मददगार होता है।उत्तराखंड के कुल कृषि क्षेत्र में से औसतन 85 प्रतिशत असिंचित हिस्से में इसकी खेती की जा सकती है/की जाती है। उत्तराखंड में 36 हजार हेक्टेअर में इसकी खेती होती है। मंडुवा की खासियत है कि यह स्वास्थ्य के लिए काफी बेहतर है। जिसकी वजह है इसकी खास पौष्टिकता। इसके आटे में प्रचुर मात्रा में रेशा होता है, यही वजह है कि इसका सेवन हृदय व मधुमेह रोगियों के लिए अति लाभदायी माना गया है। सिर्फ इतना ही नहीं मडुवे में मौजूद पर्याप्त पोषक तत्वों में इतनी क्षमता है कि यह कुपोषण से बचा सकने में बेहद मददगार होता है। मडुवा शुगर, खांसी, घेंघा व सांस रोगियों के लिए भी यह उपयोगी है। इसी महत्व को समझते हुए अब रोटी के अलावा मडुवे के बिस्कुट, हलुवा, नमकीन, केक आदि उत्पाद भी तैयार होकर बाजार में उतर रहे हैं। कुछ दशक पहले की तुलना में कहा जाए, तो मडुवे का उत्पादन कम हो रहा है। इसीलिए सरकार इसका रकबा बढ़ाने के लिए लगातार प्रयासरत है।अनाजों का एक ‘बारानाजा परिवार’ होता है, उसी का एक प्रमुख सदस्य मडुवा है। यह एक बहु उपयोगी अन्न तो है ही।साथ ही यह पशुओं के चारा है, तो खेतों के लिए जैविक खाद व नाइट्रोजन देता है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह बच्चों को दिया जाने वाला सेरेलक का विकल्प है। मडुवे का उत्पादन जैविक रूप से होने से अब विदेशों में भी इसकी मांग बढ़ी है। यहां अनाजों के बारानाजा परिवार को समझना भी जरूरी है।

दरअसल, बारानाजा खेती की एक पद्धति है। जिसमें काश्तकार एक साथ 12 फसलों का उत्पादन कर अपनी आजीविका सुदृढ़ करने का प्रयास करते हैं। इन बारानाजा परिवार की फसलों में मडुवा, झंगोरा, ज्वार, चौलाई, भट्ट, तिल, राजमा, उड़द, गहत, नौरंगी, कुट्टू, लोबिया आदि शामिल हैं। जो सभी पोषक तत्वों से भरे हैं।प्रति सौ ग्राम मडुवे में 2.7 ग्राम खनिज, 7.3 ग्राम प्रोटीन, 3.6 ग्राम रेशा, 72 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 344 मिलीग्रम कैल्शियम, 283 मिलीग्राम फास्फोरस व 13.1 ग्राम जल मौजूद रहता है। कोदो-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’ नारा 1990 के दशक में उत्तराखंड की स्थापना के लिए आंदोलन के दौरान प्रचलित था. कोदो-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’ नारा 1990 के दशक में उत्तराखंड की स्थापना के लिए आंदोलन के दौरान प्रचलित था. मगर समय बीतने के साथ और आधुनिकीकरण के चलते मोटे अनाज केवल गरीबों का खाना माने जाने लगे। ग्लैमर के इस युग में बाजारीकरण ने अपनी जगह बनाई। लिहाजा उत्तराखंड के पहाड़ी अंचलों में उगाए जाने वाला मोटा अनाज धीरे-धीरे अपना महत्व खोता चला गया। हालांकि आज भी उत्तराखंड के कई गांव में लोग मोटे अनाज की खेती कर रहे हैं। पिछले कुछ साल से हो रही प्रयासों की बदौलत अब जब लोगों में इस मोटे अनाज को लेकर के जागरूकता आई है, तो सरकार को वापस इस मोटे अनाज के प्रति मुहिम चलाने की जरूरत आन पड़ी है। खनिज और फास्फोरस शरीर के लिये बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। झंगोरा में चावल की तुलना में वसाए खनिज और लौह तत्व अधिक पाये जाते हैं। इसमें मौजूद कैल्शियम दातों और हड्डियों को मजबूत बनाता है। झंगोरा में फाइबर की मात्रा अधिक होने से यह मधुमेह के रोगियों के लिये उपयोगी भोजन है। झंगोरा खाने से शरीर में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। यही वजह है कि इस साल के शुरू में उत्तराखंड सरकार ने अस्पतालों में मरीजों को मिलने वाले भोजन में झंगोरा की खीर को शामिल करने का सराहनीय प्रयास किया। उम्मीद है कि इससे लोग भी झंगोरा की पौष्टिकता को समझेंगे और चावल की जगह इसको खाने में नहीं हिचकिचाएंगे। असलियत तो यह है कि जो चावल की जगह झंगोरा खा रहा है वह तन और मन से अधिक समृद्ध है। आज विश्व में ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशो में अनाज आधारित उत्पाद बहुतायात मात्रा में बनाया जाता है। Millet अन्य अनाज की अपेक्षा ज्यादा पोष्टिकए Gluten free तथा Slow digestible गुणों के कारण अन्य अनाजों के बजाय Millet का प्रयोग बहुतायत किया जा सकता है जो कि Millet उत्पादकों के लिये बाजार तथा उत्पादो के लिये Gluten free food का बाजार बन सकता है। उत्तराखण्ड में ही नहीं भारत में भी खेती योग्य भूमि का अधिकतम भू.भाग असिंचित होने के कारण पौष्टिकता से भरपूर Millet उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है जो कि आर्थिकी का एक बडा विकल्प होगा। जोकि उत्तराखण्ड में पारम्परिक एवं अन्य फसलों के साथ सुगमता से लगाया जा सकता है जिससे एक रोजगार परक जरिया बनने के साथ साथ इसके संरक्षण से पर्यावण को भी सुरक्षित रखा जा सकता हैए ताकि इस बहुमूल्य सम्पदा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिकी का जरिया बनाया जा सके। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में अगर की खेती वैज्ञानिक तरीके और व्यवसायिक रूप में की जाए तो यह राज्य की आर्थिकी का एक बेहतर पर्याय बन सकता है।उत्तराखंड में नवरात्रों या व्रत आदि के समय में भी झंगोरा का उपयोग किया जाता है ऐेसे में मंडुवा.झंगोरा जैसी परंपरागत फसलों को परंपरागत कृषि विकास योजना में रखा गया है। साथ ही उत्पादित फसलों को उचित दर पर खरीदने की व्यवस्था की गई है। लोगों ने क्लस्टर आधारित खेती में रुचि दिखाई है। यही कारण भी है कि राज्य में विकसित होने वाले 3900 क्लस्टर में 1482 मंडुवा.झंगोरा के हैं। इन सब प्रयासों से न सिर्फ खेती के प्रति लोगों की उदासीनता खत्म होगी, बल्कि उन्हें अच्छी आय भी होगी। उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए आंदोलन काफी संघर्षपूर्ण रहा है. बहुत से आंदोलनकारियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर राज्य निर्माण की नींव रखी थी. कोदा,झंगोरा, मंडुवा, चुकंदर और लौकी की बर्फी और मिठाई की आजतक सभी ने झंगोरा की खीर के बारे में ही सुना होगा। लेकिन अपना उत्तरकाशी इससे दो कदम आगे निकल चुका है।इधर अलग राज्य उत्तराखण्ड के आंदोलन में“कोदा झंगोरा खायेंगे उत्तराखण्ड बनाएंगे”का नारा भी साकार हो गया। राज्य भी मिल गया और कोदा झंगोरा को राष्ट्रीय के साथ साथ अंतर्राष्ट्रीय पहचान भी मिल गई।

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)।

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