भारतीय डाक सेवा : प्रेम-विनिमय का आज भी एक प्रतीक !
✍️लेख -अशोक जोशी
अभी अलविदा मत कहो दोस्तों
क्योंकि
बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी
ख़्वाबों में ही हो चाहे मुलाक़ात तो होगी
फूलों की तरह दिल में बसाए हुए रखना
यादों के चिराग़ों को जलाए हुए रखना
भाई बहन के निस्वार्थ प्रेम और अटूट विश्वास का त्योहार रक्षाबंधन कल देशभर में बड़ी धूमधाम से मनाया गया।
रक्षाबंधन के पावन पर्व पर जहां बहनों को अपने भाइयों की कलाई पर रक्षा का धागा बाँधने का बेसब्री से इंतजार रहता है, तो वहीं दूसरी ओर दूर-दराज बसे भाइयों को भी इस बात का बड़ी आतुरता से इंतजार रहता है कि उनकी बहनें भी उन्हें राखी भेजेंगी और आज भी विशेष कर पहाड़ों के, शहरों के, गांवों के दूरस्थ क्षेत्रों में बसी बहनें डाक पार्सलों के द्वारा अपने गांव – मोहल्ले के निकटतम पोस्ट ऑफिस से अपने भाईयों को अपने नाम की राखी पोस्ट करती है।
गौर करें तो क्या हम उस वर्षों पुरानी डाक-व्यवस्था को भूल तो नहीं गए थे, वो तो रक्षाबंधन जैसे कुछ त्योहार आज भी हैं जो गाहे-बगाहे मुख्यत: राखियों के माध्यम से इन डाकघरों और डाक सेवाओं से पुनः हमारी भेंट कराती है।
वरना सालों की परंपरा से हासिल कई कीमती चीजें हम भूलते जा रहे हैं, जो हमें मानवता और संबंधों के और करीब लाने का प्रयास करती थी।
वास्तव में नेगी दा ने खूब ही लिखा है कि
बगत नि रुकि हथ जोड़ी जोड़ी, बगदू राई पाणी सी …
(अर्थात हाथ जोड़-जोड़ कर भी यह वक्त कभी रुका नहीं बस पानी की तरह निरंतर अपनी गति से बहता ही चला )
समय कभी भी किसी का एक जैसा नहीं रहता, वक्त और दौर तो यूं ही जमानें में समय-समय पर सबके अपने आते और जाते रहे, बस जिंदा रह जाती है तो बस यादें ।
आज मोबाइल-इंटरनेट ने हमें डाक-चिट्ठियों से दूर कर दिया
पत्र पेटिका के विषय में खूब ही लिखा है कि
कोई सजनी प्रेम-विरह की
पाती रोज इक छोड़ जाती थी
कोई बहना अपने भाई के खातिर
राखी का संदेश दे जाती थी
क्या जमाना था कभी जब,
सबको पास मैं बुलाता था।
जी हां जरा याद कीजिए दशकों पुराना वह समय जब फेसबुक,व्हाट्सएप,इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं हुआ करते, ये तो छोड़िए यहां तक की दूर-दूर तक सगे संबंधियों की सुध लेने के लिए कोई मोबाइल फोन या टेलीफोन तक भी नहीं हुआ करते थे,
ऐसे वक्त में संचार का एकमात्र प्रमुख साधन हुआ करती थी तो बस हमारी डाक सेवाएं, डाकघर और डाकिए।
डाक सेवाओं के इस युग में डाकिया बाबू का व्यक्तित्व भी कोई साधारण नहीं होता था, बल्कि हर दिल में उनकी भी एक अति विशिष्ट छवि हुआ करती थी, उनके आते ही न जानें कितने परिजनों के चेहरे खिल उठ उठते, प्रीत में बंधे न जानें कितने युवा प्रेमियों की धड़कनें बढ़ने लगती, नौकरी की जॉइनिंग के कॉल लेटर की आस में बैठे कितने नौजवानों की सांसे थमने लगती इसका अंदाजा लगा पाना शायद संभव नहीं,पर एक अलग ही हलचल हुआ करती थी।
सच में। आज जरा याद कीजिए उस समय को कितना स्वर्णिम वह वक्त रहा होगा, गहरी संवेदनशीलता और अपनत्व के भावों से भरे कितने खूबसूरत वह सम्बन्ध रहे होंगे।
पर
जाने कहाँ गए वो दिन, जब रहते थे तेरी राह में
नज़रों को हम बिछाएं
चाहे कहीं भी तुम रहो, तुमको ना भूल पाएंगे…
बरहाल आज की इस मोबाइल-इंटरनेट की दुनिया ने हमारी पुरानी पारम्परिक डाक-व्यवस्था पर ग्रहण लगा दिया है।
डाकघरों और खत – चिट्ठियों के दौर से जुड़ी कुछ अनोखी यादें
भारतीय डाक सेवा की स्थापना यूं तो 169 साल पहले 1854 को हुई थी। ग़ौरतलब है कि आज भी यह विभाग अपनी सेवाएं दे रहा है, सिनेमा जगत में समय-समय पर कई ऐसी फ़िल्में और गीत बनते रहे हैं, जिनमें चिट्ठियों, डाकियों और पुराने डाकघरों का जिक्र मिलता है।
यदि बात उत्तराखंड इतिहास की सबसे बड़ी सुपरहिट फिल्म घरजवैं की करें तो इसमें श्यामू परदेश में नौकरी करता है और 6 महीने साल भर बाद जब घर की ओर प्रस्थान करता है तो श्यामू के इंतजार में खड़ी उसकी माला श्यामू को कहती है कि
मैं नि करदु त्वे से बात हट छोड़ी दे मेरु हाथ
बोल चिट्ठी किले नी भेजी , तिन चिट्ठी किले नी भेजी
श्यामू (नायक ) – तेरा गौं कु डाक्वान चिट्ठी देणु आन्दु ।
तू रेन्दी बणूमां वो कैमा दे जान्दु
मुण्ड मां धेरी कि जो हाथ, सोची – सोची मिन या बात।
[ श्यामू – नायक बलराज नेगी ,
माला – नायिका शांति चतुर्वेदी ]
तो वही दूसरा दृश्य हम देखते हैं गढ़वाली फिल्म चक्रचाल में –
यूं तो यह फिल्म मुख्य रूप से भूकंप त्रासदी पर आधारित है, किंतु प्रेम से जुड़े हुए कुछ प्रसंग भी इस फिल्म की कहानी का मुख्य भाग है। फिल्म के मुख्य पात्रों में से एक मंगतू जोकि फौज में है, मंगतू को उसके घर से चिट्ठी पहुंचती है जिसमें उसकी मंगनी की बात लिखी हुई होती है जिसे देख वह *फूले नहीं समा* पाता।
और आगे फिर कुछ इस प्रकार से अपनी खुशी को जाहिर करता है कि – घर बटि चिट्ठी ऐ ग्यायी…
मंगतू के साथी – पढ़ क्या लिख्यू चा
मंगतू – गरु च लिफ्फु जरा ज्यादा ही
मंगतू के साथी – खोल क्या लिख्यू चा
मंगतू – पिठै लगी चा भैर लिफाफा मा भीतर लिख्यू चा ह्वे ग्यायी .. २
बल मेरी मांगण ह्वे ग्यायी डेरा बुलायु चा
इसी फिल्म में चिट्ठी पर आधारित एक दूसरा गीत यह भी है इसमें रुपा देबू के लिए गाती है कि –
ना चिट्ठी आई तेरी ना रैबार कैमा
रुव्वे ले सुव्वे ले थारयूँ
छिन आंसू मैमा
इसी क्रम में यदि बात वर्ष 1985 में बनी राज कपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली की जाए तो कुदरत के नजारों के बीच हर्षिल ( उत्तरकाशी ) का पोस्ट ऑफिस भी उनकी इस फिल्म की कहानी का एक हिस्सा बनी थी।
अपनी चिट्ठी का इंतजार करती नायिका गंगा इस पोस्ट – ऑफिस में आकर डाक बाबू से जानकारी हासिल करती है।
आगे हम देखते है जब कॉफी देर हो जाती है और कोलकात्ता से नरेन की कोई चिट्ठी खबर गंगा तक नहीं पहुंचती तो वह कोलकात्ता जाने का साहस कर गंगोत्री से ऋषिकेश की बस पकड़ती है, बस निकलने के कुछ देर बाद नरेंद्र के चाचा कुंज बिहारी गंगा के गांव गंगोत्री पहुंचकर डाक बाबू से गंगा का पता जानते हैं।
डाक बाबू – आप भी पोस्ट की चिट्ठी की तरह देर से आए कुंज बाबू गंगा, तो नरेन के बेटे को लेकर सुबह ही कलकत्ता के लिए चले गई।
यह सीन फिल्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है,
किस्सों की इस यात्रा को आगे बढ़ाएं तो गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी ने भी अपनी गीत यात्रा में ऐसे तमाम गीत लिखे जिनमें डाक सेवा से जुड़े चिट्ठी – पत्री का जिक्र मिलता है कुछ गीतों का जिक्र ऊपर भी हो चुका है कुछ और बाकी है जिनकी शुरुआती पंक्तियां क्रमशः कुछ इस प्रकार से हैं।
पहला गीत
दूर परदेशु छऊं, उमा त्वेथें म्यारें सौं
हे भूली न जैई, चिट्ठी देणी रैयी
राजी ख़ुशी छौं मी यख तूभी राजी रैई तख
गौं गौलोँ मा चिट्ठी खोली
मेरी सेवा सोंली बोली
हे भूली न जैई, चिट्ठी देणी रैयी
दूसरा गीत –
चिठ्युं का आखर अब ज्यू नि बेल मोंदा,
बुसील्या रैबार तेरा आस नी बंधौन्दा
ऐजदी भग्यानी, ऐजदी भग्यानी -२
ऐजदी भग्यानी ईं ज्वानि का छौन्दा-२
तीसरा गीत –
तेरि पिड़ा मां द्वी आंसु मेरा भि,
तोरि जाला पिड़ा ना लुकेई
तख तेरा हाथ बिटि छुटि जौ कलम
यख रौं मि चिठ्युं जगवल्णू
न हो कखि अजाणम न हो ।
ज्यू हल्कु ह्वे जालो तेरो भि
द्वी आंखर चिट्ठी मां लेखि देई ।
( पति – तुम्हारे दुखों को समझ कर यदि मेरे भी दो आंसू निकल पड़े तो तुम्हारा दर्द कुछ कम हो जाएगा इसलिए तुम अपने दुख को छुपा कर मत रखो !
आगे पत्नी – वहां आपके हाथों से कलम छूट जाए और मैं यहां आपके पत्र का इंतजार करती रहूं
ना हो ऐसा अनजाने में भी कभी न हो
अगर आप अपने दिल की बात चिट्ठी में लिख दोगे तो आपका जी हल्का हो जाएगा )
चिट्ठी पत्री से जुड़ा हुआ ही एक किस्सा कक्षा दसवीं के अंग्रेजी के लेसन A Letter to God में मैंने पढ़ा था मुझे आज भी याद है जिसमें –
Lencho” (लैंचो ) नाम का एक गरीब किसान था। उसे अच्छी फसल की उम्मीद थी। मगर उसकी निराशा के लिए, एक ओलावृष्टि अचानक से आई और उसकी सभी फसलों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया।
इस प्रकार, उन्होंने अपनी वित्तीय चिंताओं को संबोधित करते हुए भगवान को एक पत्र लिखा और डाकघर चला गया। उसने पत्र पर एक मुहर लगाई और उसे मेलबॉक्स में डाल दिया। उन्होंने ईश्वर से अनुरोध किया कि वह अपने खेतों को फिर से बोने और अपने परिवार को भुखमरी से बचाने के लिए उन्हें एक सौ पेसो भेज दें।
पोस्टमास्टर ने पत्र पढ़ा लेकिन जब उसने देखा कि पत्र भगवान को संबोधित किया गया था, तो वह जोर से हंस पड़ा। हालाँकि, वह किसान के उस विश्वास से भी हिल गया था, जिसके साथ भगवान को यह पत्र लिखा गया था।
उन्होंने गरीब किसान के भगवान में निर्विवाद विश्वास की सराहना की और उसकी मदद करने का फैसला किया। जल्द ही, उन्होंने डाकघर के कर्मचारियों को दान के रूप में कुछ पैसे देने के लिए कहा और खुद अपने वेतन का एक हिस्सा भी दिया ताकि Lencho का भगवान में विश्वास हिल न जाए।
Lencho कि यह कहानी ईश्वर की प्रति अपने गहरे विश्वास को खूबसूरती से दर्शाती है और यही वह विश्वास था जो चिट्ठी पत्री के दौर में रिश्तों को कायम किए हुए था।
राखी मेकिंग के साथ राखी सेंडिंग भी बन सकती है एक बेहतर क्रियाकलाप
यह हर्ष का विषय है की गतिविधियां दिन प्रतिदिन हमारी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का एक दैनिक हिस्सा बन रही है, देश और प्रदेश स्तर के विभिन्न विद्यालयों में छात्रों ने इस बार बढ़ – चढ़कर अपने सहपाठियों संग राखी मेकिंग के कार्यक्रमों में भाग लिया पर मेरे मन में नवाचार का एक अंकुर यह भी फूट रहा है कि आने वाले समय में यदि राखी मेकिंग के साथ ही राखी सेंडिंग को भी पाठ्य सहगामी क्रियाकलाप का एक हिस्सा बनाया जाए तो यह निश्चित ही डाक व्यवस्था की उस पुरानी परंपरा को संजोने की दिशा में एक लाजवाब पहल होगी, जिसमें हमारे छोटे-छोटे विद्यार्थी पत्राचार के माध्यम से अपने सगे – संबंधी भाइयों को राखी तो भेजेंगे ही लेकिन इसके साथ ही डाक व्यवस्था की व्यवहारिकता को भी आसानी से समझ सकेंगे।
अंत में आप सभी बहनों से आगे के लिए भी यह आग्रह रहेगा कि इस virtual युग में भी आप दूर बसे भाइयों को राखियां लिफाफे में डाक के माध्यम से ही प्रेषित करते रहे, ताकि प्रेम और बंधुत्व के आदान-प्रदान की यह डाक परंपरा जीवित बनी रहे।