केएस असवाल
गौचर : मैदानी भागों से प्लास्टिक की थैलियों में पैक होकर आ रहे विभिन्न कंपनियों के दूध ने पहाड़ के दुग्ध व्यवसायियों को इस कदर हांसिए पर धकेल दिया है। कि उनकी आर्थिकी मजबूत होने के बजाय कमजोर होती जा रही है।
पहाड़ के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन व खेती है।एक समय ऐसा भी था जब पहाड़ का कास्तकार खेती व पशुपालन से अपनी आजीविका चलाता था। लेकिन संयुक्त उत्तर प्रदेश में रहकर पहाड़ के लोगों के इस व्यवसाय को गति नहीं मिल पा रही थी। अलग राज्य की मांग करना भी यह एक कारण रहा था। तब लोगों ने पहाड़ के इस पौराणिक व्यवसाय से जुड़े नारे को कोदा झिंगोरा खाएंगे उत्तराखंड बनाएंगे जोर शोर हवा देने का काम किया था। लेकिन तब लोगों ने यह सोचा भी नहीं होगा कि अलग राज्य बनने के बाद उनके इस व्यवसाय को हांसिए पर धकेल कर मैदानी भागों से व्यवसायियों को उनके ऊपर हावी होने दिया जाएगा। अलग राज्य बनने के बाद जहां जंगली जानवरों, बंदरों, सुअरों ने पहाड़ के काश्तकारों के व्यवसाय को बंदी के कगार पर पहुंचा दिया है। वहीं मैदानी भागों से प्लास्टिक की थैलियों में पैक होकर आ रहे दूध ने पहाड़ के दुग्ध व्यवसायियों को इस कदर हांसिए पर धकेल दिया है कि इन प्लास्टिक की थैलियों के आगे काश्तकारों के सामने दूध बेचने का भी संकट पैदा कर दिया है। वर्तमान में पारस,मदर डेयरी,आनंदा, पतंजलि,परम, मधुसूदन,अमूल, आंचल, आदि तमाम कंपनियों की दूध की थैलियों ने गांव गांव तक अपनी पहुंच बना दी है। इन कंपनियों के दूध फुल क्रीम,काव व डबल टोन के नाम से 50, से 66 रुपए की कीमत में प्रति लीटर बेची जा रही हैं। दही का दाम 100 रूपए, मठ्ठा 350 ग्राम 15 रूपए में बेचा जा रहा है। जबकि पहाड़ के काश्तकारों का दूध 40 से 60 रूपए में भी बिकने को तैयार नहीं है। इससे कई अति उत्साही युवाओं डेरियां घाटे का सौदा बनने के बाद बंद करनी पड़ी हैं। हालांकि सरकार दुग्ध व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं संचालित कर कास्तकारों को अनुदान पर गाय भी उपलब्ध करा रही है। लेकिन उनके दूध को बाजार न मिलने से उनका व्यवसाय घाटे का सौदा बनता जा रहा। नौटी की मीना देवी,बैंसोड़ के कमल रावत,झिरकोटी की सरिता चौहान आदि का कहना है कि मैदानी भागों से आ रहे दूध की थैलियां लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। उनके दूध का खरीददार न मिलने से वे दूध को औने-पौने दामों में बेचने को तैयार हो रहे हैं। सरकार द्वारा मुख्यमंत्री घस्यारी योजना के तहत मिलने वाली हरी घास उपलब्ध न कराए जाने से भी वे भारी संकट से घिर गए हैं। समय रहते सरकार ने कास्तकारों के इस व्यवसाय को गंभीरता से नहीं लिया तो इस व्यवसाय के पूरी तरह हांसिए पर चले जाने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।