आठ वर्षों के बाद उर्गमघाटी में पांडव नृत्य 19 दिसंबर को होगा सम्पन
रघुबीर नेगी उर्गम घाटी
जोशीमठ विकास खंड के पर्वतीय अंचलों में बसी उर्गमघाटी सदियों से अपनी पौराणिक संस्कृति परम्परा गाथाएं नृत्य अपने आंचल में समेटे हुए है पर्यटन तीर्थाटन पौराणिक संस्कृति प्रकृति के दिलकश नजारे पर्यटकों को अपनी ओर खींच लाते हैं इसी घाटी में विराजमान हैं पंचम केदार कल्पेश्वर और पंचबदरी में ध्यानबदरी जो बारह महीने खुले रहते हैं। भगवान नारायण और शिव शक्ति विश्वकर्मा की धरती में 8 वर्षों के उपरांत भूमिक्षेत्रपाल घंटाकर्ण के सानिध्य में पांडव नृत्य का आयोजन हो रहा है। वैसे तो पांडव नृत्य गढ़वाल और कुमाऊं में भव्य रुप से प्रतिवर्ष होता है, लोक मान्यताओं के अनुसार पांडव नृत्य विशेष रूप से तब किया जाता है जब क्षेत्र में विशेषकर के गाय को खुरपका मुंह पक्का रोग की संभावना रहती है। गांव की सुख समृद्धि खुशहाली के लिए पांडव नृत्य का आयोजन होता है। मान्यता है कि अर्जुन के 8 नामों का उच्चारण कर दिया जाए तो खुरियाँ रोग नहीं होगा भूमिक्षेत्र पाल घंटाकर्ण की आज्ञा से इस साल पांडव नृत्य का आयोजन किया जा रहा है। मेला कमेटी उर्गमघाटी के 12 गांव मिलकर पांडव नृत्य का आयोजन सम्पन कराते हैं। पांडवों के द्वारा हर एक दिन गांव में घर – घर जाकर नृत्य किया जाता है। और ग्रामीणों के द्वारा बनाया हुआ भोग प्रसाद को ग्रहण किया जाता है। लोगों की आस्था है कि अवतारी पुरुषों महिलाओं के पांडवों के प्रतीक स्वरूप जब गांव भ्रमण किया जाता है उस समय प्रसाद ग्रहण करना पुण्य माना जाता है। लोग अपने-अपने गांव में पांडव देवताओं के निशान एवं अवतारी पुरुषों को ले जाकर भव्य रूप से उन्हें आदर सत्कार करते हैं और विशेष करके घी मक्खन लगाते हैं, जिससे घी दूध का भंडार बना रहे। ढोल दमाऊ,भँवांकरे इस नृत्य की आत्मा है जिससे ताल छंद एवं गायन के माध्यम से महाभारत की कथाएं और लोक गाथाओं का वर्णन किया जाता है। आपसी संवाद बहुत भावुक होता है लोगों का मानना है ’कि पांडव काल में जिनजिन स्थानों में पांडवों ने भ्रमण किया था उन स्थानों पर पांडवों की पूजा होती है। पांडवों के द्वारा विभिन्न प्रकार की लीलाएं की गई उनका बखान इस पांडव नृत्य के दौरान किया जाता है। पांडव नृत्य के माध्यम से ग्रामीण एकता और भाई चारा एवं प्रेम सौहार्द एकता में बांधने का काम करती है। पौराणिक संस्कृति ही लोगों को अपनी माटी से जोड़े रखती है, क्योंकि किसी भी राज्य गांव की पहचान वहां की भाषा बोली संस्कृति भेष-भूषा से ही होती है। उर्गमघाटी के मेला कमेटी के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह सिंह रावत बताते हैं इस नृत्य के माध्यम से लोगों में सांस्कृतिक संरक्षण के प्रति रुचि पैदा होती है और हमारी संस्कृति का प्रसार बढ़ता है। उन्होंने कहा कि पांडव नृत्य की जो विधाएं आज है वह मौखिक रूप से सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। इसका किसी तरह की गांव में लिखित गाथा नहीं है फिर भी यह कार्यक्रम चलती रहती है। उन्होंने कहा कि हमने इस मेले को भव्य रूप देने के लिए थोड़ा बहुत परिवर्तन किया है किंतु मूल रूप पर छेड़खानी नहीं की है। उर्गम घाटी के सलना, ल्याँरी, थैणा, गीरा, बांसा देवग्राम बडगिण्डा के विभिन्न तोकों में प्रतिदिन रात्रि को प्रसाद ग्रहण करके आशीर्वाद पांडवों द्वारा दिया जाता है। गांव के मध्य उर्गम ग्राम पंचायत के बडगिण्डा गांव जिसे देवखोला कहते हैं यहां पर रात एवं दिन में नृत्य का मंचन होता है। इस मंचन में 15 दिवसीय नृत्य 21 छोप तालो के साथ संपन्न कराया जाता है। समापन तिथि का निर्धारण क्षेत्र के भूमियाल घंटाकर्ण करते भूमिक्षेत्रपाल घंटाकर्ण पश्वा महावीर राणा दाणी देवता पश्वा हीरा सिंह। विश्वाकर्मा रामचन्द्र समिति के कोषाध्यक्ष रघुवीर सिंह नेगी गणियाँ कुंवर सिंह चौहान,अवतार पंवार प्रताप चौहान राजेन्द्र राणा दर्वान नेगी कन्हैया नेगी कुंवर नेगी ढोलवादक गोपाल प्रेम गोपाल दीपक भक्ति समेत दर्जनों लोग इस कार्य में सहयोगी हैं।