क्यों नहीं बढ़ पा रही मोटे अनाजों की खेती ?

Team PahadRaftar

क्यों नहीं बढ़ रही मोटे अनाजों की खेती ?

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हमारे देश में खेती करने के तौर-तरीक़ों में बहुत तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं। भारत सरकार ने परम्परागत खेती
को बढ़ावा देने के लिए अनेक नीतिगत निर्णय लिये हैं तथा बजट में पर्याप्त निधि आवंटित की गई है। जैविक
खेती व मोटे अनाजों की खेती के उत्पादों का राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में व्यापार बढ़ाने के लिए अथक
प्रयास किए जा रहे हैं। बदलते पर्यावरण और बढ़ती जनसंख्या की भरण-पोषण की चिंता के बीच भारत के
अनुरोध पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से वर्ष 2023 को मिलेट ईयर या मोटे अनाजों का वर्ष घोषित किया गया है।
अफ्रीका महाद्वीप सर्वाधिक मोटे अनाजों का उत्पादन करने वाला महाद्वीप है। यहाँ 489 लाख हेक्टेयर में मोटे
अनाजों की खेती की जाती है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मिलेट्स रिसर्च हैदराबाद के अनुमान के अनुसार भारत
एशिया का 80 प्रतिशत व विश्व का 20 प्रतिशत उत्पादन करता है। हरित क्रांति के बाद इन फसलों के क्षेत्रफल
में निरंतर कमी आती रही है। एफएओ के अनुसार, वर्ष 2020 में मोटे अनाजों का विश्व उत्पादन 30.464
मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) था और भारत की हिस्सेदारी 12.49 एमएमटी थी, जो कुल मोटे अनाजों के
उत्पादन का 41 प्रतिशत है। भारत ने 2021-22 में मोटे अनाजों के उत्पादन में 27 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की,
जबकि पिछले वर्ष यह उत्पादन 15.92 एमएमटी था। एपीडा मोटे अनाजों का निर्यात बढ़ रहा है। ज्वार,
बाजरा, प्रमुख निर्यातक फसलें हैं। इंडोनेशिया,    बेल्जियम, जर्मनी, मैक्सिको, इटली, अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राज़ील
और नीदरलैंड प्रमुख आयातक देश हैं। एपीडा द्वारा मोटे अनाजों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए काम किया
जा रहा है। मोटे अनाजों के तहत ज्वार, बाजरा, कंगनी, कोदो, सावां, चेना, रागी, कुटटू, चौलई, कुटकी आदि
प्रमुख पौष्टिक फसलें है। इनमें रेशे, बी- कॉम्प्लेक्स विटामिन, अमीनो एसिड, वसीय अम्ल, विटामिन- ई,
आयरन, मैगनीशियम, फास्फोरस, पोटेशियम, विटामिन बी- 6 व कैरोटीन ज़्यादा मात्रा में पाये जाते हैं।
ग्लूकोज़ कम होने से मधुमेह का ख़तरा कम होता है। इसलिए इन फसलों को सुपर फ़ूड कहते हंै। यह फसलें
कम पानी में अर्ध शुष्क क्षेत्रों में उगाई जा सकती हंै तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के परिणाम आसानी से
सहन करने की क्षमता रखती है। इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत अधिक होने से उत्पादन लागत बहुत कम

हो जाती है। उच्च पोषण और बेहतर स्वास्थ्य प्रदान करते हुए बदलती जलवायु परिस्थितियों में जीवित रहने
की क्षमता के कारण देश में मोटे अनाज को पुनर्जीवित करने में रुचि बढ़ रही है। मोटे अनाज की खेती और
विपणन को बढ़ाने की दिशा में विभिन्न एजेंसियों द्वारा कई तरह की पहलों को बढ़ावा दिया जा रहा है। व्यापक
प्रभाव के लिए प्रमुख प्राइवेट कम्पनियों, आपूर्ति श्रृंखला के हितधारकों जैसे एफपीओ, स्टार्टअप, निर्यातकों और
मोटे अनाजों पर आधारित गुणमूल्य संवर्धित उत्पादों के उत्पादकों के बीच एकीकृत दृष्टिकोण और नेटवर्किंग की
महती आवश्यकता है।दुनिया के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में भोजन और चारे के रूप में मोटे अनाज, छोटे अनाज वाले
घास के अनाज का एक समूह महत्वपूर्ण है। भारत में, मुख्य रूप से गरीब और सीमांत किसानों द्वारा और कई
मामलों में आदिवासी समुदायों द्वारा शुष्क भूमि में मोटे अनाजों की खेती की जाती रही है। इस देश में मोटे
अनाजों की खेती को पुनर्जीवित करने के लिए बढ़ती रुचि पोषण, स्वास्थ्य और लचीलेपन के विचारों से प्रेरित
है। ये अनाज शुष्क क्षेत्रों और उच्च तापमान पर अच्छी तरह से बढ़ते हैं; वे खराब मिट्टी, कम नमी और महंगे
रासायनिक कृषि आदानों से जूझ रहे लाखों गरीब और सीमांत किसानों के लिए आसान फसलें रही हैं। क्योंकि
उनकी कठोरता और अच्छे पोषण की गुणवत्ता के कारण वे वास्तव में जलवायु परिवर्तन को अपनाने के लिए
महत्वपूर्ण रणनीति का हिस्सा हो सकते हैं।मोटे अनाजों के उपयोग में वृद्धि में आने वाली बाधाओं और प्रवृत्तियों
को बेहतर ढंग से समझने के लिए, डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन, एक्शन फॉर सोशल एडवांसमेंट
एंड बायोडायवर्सिटी इंटरनेशनल ने एक अध्ययन किया, जिसमें तमिलनाडु और मध्य प्रदेश में गुणमूल्य श्रृंखला
में काम करने वालों को शामिल किया गया। इन फसलों के अनुसंधान और विकास दोनों में लगे प्रमुख
हितधारकों के साक्षात्कार लिए गये। जिससे मोटे अनाजों की समस्याओं को समझने में मदद मिली।मोटे अनाजों
के उत्पादन में गिरावट के पीछे प्रमुख कारकों में कम फसल उत्पादकता, उच्च श्रम सघनता, फसल कटाई के बाद
के कठिन संचालन और आकर्षक फार्म गेट कीमतों की कमी शामिल हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस)
के माध्यम से चावल और गेहूं की आसान उपलब्धता ने बाजरा उत्पादक क्षेत्रों में खाद्य खपत पैटर्न के बदलाव में
योगदान दिया है। रागी के अपवाद के साथ – जिसके लिए प्रौद्योगिकी ने तेजी से प्रगति की है- मोटे अनाजों के
हल से संबंधित कठिन परिश्रम अभी भी स्थानीय उत्पादकों को हतोत्साहित कर रहा है। अन्य अक्षम करने वाले

कारकों में शामिल हैं, उत्पाद विकास, व्यावसायीकरण में अपर्याप्त निवेश, और उनके उपभोग से जुड़ी निम्न
सामाजिक स्थिति की धारणा। दैनिक आहार में मोटे अनाजों का उपयोग करने के तरीकों के बारे में ज्ञान का
अभाव व्यापक है, इसके बावजूद कि उनसे कई प्रकार के व्यंजन बनाए जा सकते हैं। स्थानीय बाजारों में मोटे
अनाजों की खराब उपलब्धता, उनके उत्पादों की उच्च कीमतों के साथ-साथ उनकी लोकप्रियता को सीमित कर
रही है। हालांकि, सरकार के अनुसार, यह अनुमान है कि मोटे अनाजों का बाजार 2025 तक 9 बिलियन
अमेरिकी डॉलर से अधिक के अपने मौजूदा बाजार मूल्य से बढक़र 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक हो
जाएगा। भारतीय बाजरा को बढ़ावा देने के लिए इंडोनेशिया, जापान और यूनाइटेड किंगडम के देशों में क्रेता-
विके्रता बैठकें भी आयोजित की जाएंगी। एपीडा खुदरा स्तर पर और लक्षित देशों के प्रमुख स्थानीय बाजारों में
भोजन के नमूने और चखने का आयोजन भी करेगा, जहां व्यक्तिगत, घरेलू उपभोक्ता उत्पादों से परिचित हो
सकते हैं। मोटे अनाजों का कठिन प्रसंस्करण प्रमुख चुनौती है जो उपभोक्ता की मांग और बाज़ार क्षमता बढ़ाने में
बाधा डालती है। गुणमूल्य श्रृंखला के कारकों द्वारा प्रसंस्करण संयंत्रों तक पहुंच को सुविधाजनक बनाने के लिए
कई हस्तक्षेप किए जा सकते हैं और दूसरी ओर उपभोक्ताओं की प्रसंस्कृत मोटे अनाजों के उत्पादों तक पहुंच
बनाई जा सकती है। मोटे अनाजों के खेतों के पास उपयुक्त प्रसंस्करण इकाइयों की कमी के कारण स्थानीय
उत्पादकों को अपनी उपज को दूर-दराज के स्थानों पर ले जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।  भारत में 60 के
दशक में हरित क्रांति के बाद लोगों की थाली से मोटे अनाज की जगह गेहूं और चावल ने ले ली. यानि की जो
अनाज हम बीते हजारों सालों से खा रहे थे, उसे हमने त्याग दिया. लेकिन अब सरकार की इस पहल से हम
फिर से मोटे अनाज की ओर अग्रसर हो रहे हैं  वैश्विक स्तर पर मोटे अनाज के उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी
करीब 40 फीसदी है। भारत ने कुछ मोटे अनाजों को हजारों साल पहले अपना लिया था। इनका जिक्र प्राचीन
वैदिक साहित्य में भी मिलता है। यजुर्वेद में प्रियंगव, श्याम-मक्का और अनवा का उल्लेख है। लेकिन हरित क्रांति
के बाद गेहूं और धान जैसे अनाजों की पैदावार में भारी इजाफा हुआ। नतीजतन मोटे अनाज की खेती के प्रति
किसानों का रुझान घटता चला गया। बहरहाल, गेहूं-चावल की बढ़ी हुई पैदावार का हमारे परंपरागत खान-
पान की आदतों पर भी बहुत प्रभाव पड़ा।केन्द्र सरकार की तरफ से किसानों को मोटे अनाज की खेती करने के

लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि ज्यादा उत्पादन हो और मोटा अनाज हर वर्ग की पहुंच में आ जाए। केंद्र
सरकार ने बाजरा सहित संभावित उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने और पोषक अनाजों की सप्लाई चेन की
मुश्किलों को दूर करने के लिए पोषक अनाज निर्यात संवर्धन फोरम का गठन किया है। जीवन शैली में बदलाव
के कारण कई तरह की बीमारियां फैल रही हैं इन बीमारियों में मोटे अनाज फायदेमंद हैं। इससे मोटे अनाज का
बाजार लगातार बढ़ रहा है। दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें ग्लूटेन से एलर्जी होती है। मोटे अनाज ग्लूटेन
फ्री होते हैं इसलिए इनके निर्यात की अच्छी संभावनाएं हैं। स्‍पष्‍ट है सरकार की मोटे अनाजों को बढ़ावा देने
की नीति खेती के पूरे परिदृश्य को बदलने की क्षमता रखती है। जिस 'मिलेट्स' के पीछे आज भाग रही पूरी
दुनिया, कभी उत्तराखंड का मुख्य भोजन था वो 'मोटा अनाज'2023 में मोटे अनाजों पर चर्चा जोरों से चल रही
है. मिलेट्स यानी मोटा अनाज दुनिया के सबसे पुराने उत्पादित अनाजों में से हैं. हजारों साल पहले पूरे अफ्रीका
और दक्षिण पूर्व एशिया में मिलेट्स उगाए जाते थे. इनका उपयोग अनेक तरह के खाद्य और पेय पदार्थ बनाने में
किया जाता था. उत्तराखंड में भी मिलेट्स यानी मोटा अनाज की समृद्ध परंपरा रही है. जिस 'मिलेट्स' के पीछे
आज भाग रही पूरी दुनिया, कभी उत्तराखंड का मुख्य भोजन था वो 'मोटा अनाज' वैसे तो केंद्रीय बजट की
घोषणाओं के लाभार्थी सभी राज्य होते हैं, लेकिन इस बजट में उत्तराखंड जैसे सीमांत हिमालयी व छोटे राज्य
को मुस्कराने के कुछ ठोस आधार भी दिए हैं। इस बार बजट में कुछ न कुछ ऐसा जरूर है कि जिसके क्रियान्वयन
के लिए उत्तराखंड में भी उपजाऊ भूमि है। राज्य सरकारें ईमानदारी से पूरी जिजीविषा के साथ काम करें तो
जंगलों में परिवर्तित हो रहे पहाड़ों के सीढ़ीनुमा खेत फिर से लहलहा सकते हैं। वित्त मंत्री के बजट भाषण में
मोटा अनाज, जैविक खेती, फल और सब्जी जैसे शब्दों का उल्लेख पहाड़ के किसानों के लिए एक सौगात में
तब्दील हो सकती है।संबंधी घोषणाओं पर उत्तराखंड अपनी अच्छी हिस्सेदारी बना सकता है। चुनावी परिवेश
में सरकार के बजट को राजनीतिक रूप-रंग न मिले, ऐसा होना संभव नहीं है। प्रदेश की सत्ताधारी भाजपा इसे
डबल इंजन की स्वाभाविक वित्तीय उत्पत्ति बताएगी तो मुकाबले में खड़ी कांग्रेस इसे नाकाफी करार देगी।
उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों के हितों का ध्यान केंद्र ने रखा इसकी तरह-तरह की राजनीतिक टिप्पणी चुनावी
मैदान में गूंजेगी।चुनावी परिवेश में होने वाली बजट घोषणाओं की राजनीतिक व्याख्या को एक तरफ रखें व

केवल प्रदेश के हितों को ही देखें तो इस बजट में काफी कुछ है। सबसे पहले कृषि को देखें तो इसमें समूचे राज्य के
किसानों के लिए ऐसे प्रविधान हैं जिनका लाभ लिया जा सकता है। सरकार ने एमएसपी पर रिकार्ड खरीदारी
करने की घोषणा की है, इसका लाभ हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर जैसे जिलों के किसानों को मिलेगा। यही हर बार
होता भी है, लेकिन इस बार पहाड़ के किसानों को कुछ समझने व कुछ करने की प्रेरणा बजट से मिलती दिखती
है। वर्ष 2023 को मोटा अनाज वर्ष घोषित किया गया, यह राज्य के पहाड़ी क्षेत्र के किसानों के लिए एक अच्छी
खबर है। पहाड़ों में मोटे अनाज होते हैं व इनका उत्पादन बढ़ाने की काफी संभावनाएं भी हैं।आज की तारीख में
भी देहरादून से लेकर दिल्ली तक मोटे अनाज की अच्छी कीमत मिल रही है। कई गैरसरकारी संस्थाएं इस काम
में लगी हैं। इससे रोजगार भी मिल रहा है। स्थिति यहां तक आ गई है कि सीमित उपज व ऊंची कीमत के कारण
मोटा अनाज राज्य के ही मध्यम वर्ग की पहुंच से दूर हो गया है। अभी तक मांग व मूल्य बढ़ने का मुख्य कारण
मोटे अनाज के गुण व स्वास्थ्य के प्रति लोगों में बढ़ती जागरूकता थी। केंद्र सरकार की यह पहल रंग लाई तो
पहाड़ों में मोटे अनाज की उपज व्यावसायिक रूप ले सकती है। बजट में जैविक खेती को प्रोत्साहन देने वाले
प्रविधान भी हैं। जैविक खेती के लिए पहाड़ों में बहुत संभावनाएं हैं। मोटे अनाज के बड़े पैमाने पर जैविक
उत्पादन के लिए मानव संसाधन की आवश्यकता होगी। पहाड़ी क्षेत्रों से मैदान की ओर तेजी से हुए पलायन के
कारण खेत जंगल का रूप लेते जा रहे हैं। रोजगार के लिए युवा वर्ग नीचे उतर रहा है।इस बार बजट में की गई
घोषणाओं में उनकी चिंता भी झलक रही हैं और कुछ आशाएं जगाती हैं। इस तरह की खेती के लिए स्टार्टअप
को प्रोत्साहित करने की बात भी बजट भाषण में रही। गंगा किनारे प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित किया जाता है
तो कई जिलों के गांव लाभार्थी हो सकते हैं।राज्य चारधाम जैसी कई परियोजनाएं चल रही हैं, लेकिन फिर भी
दूरस्थ व सीमांत के गांवों में सड़कों का अभाव है, बजट में पर्वतमाला योजना को काफी महत्व दिया गया है।
इससे कई दुर्गम क्षेत्रों को सुगम बनाया जा सकता है। इस तरह के प्रविधान पहाड़ में खाली हो रहे गांवों को
जीवंत भी कर सकते हैं व सीमाओं को सतर्क भी रख सकते हैं।उत्तराखंड में औद्योगिक विकास धीमी गति से
हुआ। बजट में लघु एवं मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहन देने की घोषणा है। राज्य की 68,888 इकाइयां इसका
लाभ ले सकती हैं। बुरे दौर से गुजर रहे होटल एवं आतिथ्य उद्योग को खड़ा करने का संकल्प पूरा होता है तो

प्रदेश का पर्यटन व तीर्थाटन भी तेजी से पटरी पर लौट सकता है। रोपवे परियोजनाओं को प्राथमिकताओं में
रखना भी उत्तराखंड के पर्यटन के लिए शुभ समाचार ही माना जाएगा।

उत्तराखंड में शुष्क मौसम में पारा चढ़ने के साथ ही जंगल धधकने का सिलसिला फिर शुरू हो गया है। मार्च में
मौसम की मेहरबानी के चलते प्रदेश में जमकर वर्षा हुई और जंगल की आग से राहत रही। हालांकि, अप्रैल में
शुरुआत से ही मौसम शुष्क बना हुआ है।खासकर बीते तीन दिन से पारे में लगातार इजाफा हो रहा है। ऐसे में
दो दिन के भीतर प्रदेश में जंगल की आग की 14 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 40 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र को
नुकसान पहुंचा। आने वाले दिनों में वन विभाग की मुश्किलें बढ़ने की आशंका है। हालांकि, विभाग की ओर से
आग की रोकथाम के भरसक प्रयास करने का दावा किया जा रहा है।प्रदेश में अनियमित वर्षा के पैटर्न के चलते
बीते कुछ सालों से शीतकाल में भी आग की घटनाएं बढ़ गई हैं। हालांकि, ग्रीष्मकाल में ही जंगलों को आग का
खतरा सर्वाधिक रहता है। मार्च से जून तक का समय आग के लिहाज से अत्यधिक संवेदनशील माना जाता है।
खासकर कम वर्षा होने और वातावरण शुष्क होने के कारण जंगल की आग तेजी से फैलती है।इस बार मार्च में
वर्षा अधिक होने से जंगल की आग की घटनाएं न के बराबर हुईं। हालांकि, अब अप्रैल में पारा तेजी से चढ़ रहा
है और फिलहाल वर्षा के आसार नहीं दिख रहे हैं। इसके बाद मई और जून भी वन विभाग के लिए चुनौतीपूर्ण
साबित हो सकते हैं।बीते दो दिन की बात करें तो कुल 14 घटनाओं में से 10 घटनाएं आरक्षित वन क्षेत्र में हुईं
और चार घटनाएं सिविल क्षेत्र की हैं। हालांकि, नुकसान आरक्षित क्षेत्र में 8.7 हेक्टेयर और सिविल क्षेत्र में
31.5 हेक्टेयर जंगल को हुआ है।मुख्य वन संरक्षक वनाग्नि एवं आपदा प्रबंधन ने कहा कि वन विभाग की ओर से
जंगल की आग रोकने को तमाम प्रयास किए जा रहे हैं। फायर क्रू स्टेशन को अलर्ट मोड पर रखा गया है और

मुख्यालय स्थित कंट्रोल रूम से निगरानी की जा रही है। वन पंचायतों का सहयोग लेने के साथ ही ग्रामीणों को
भी जागरूक किया जा रहा है। उत्तराखंड में मौसम शुष्क है और चटख धूप झुलसाने लगी है। पहाड़ से लेकर
मैदान तक पारा तेजी से चढ़ रहा है। ज्यादातर मैदानी क्षेत्रों में अधिकतम तापमान 33 डिग्री सेल्सियस के पार
पहुंच गया है। बारिश कम होने के कारण इस बार सर्दियों के मौसम में भी लगातार जंगल धधकते रहे। पिछले
वर्ष अक्टूबर तक मॉनसून की बारिश होती रही थी। उसके बाद राज्य में सिर्फ छिटपुट बारिश हुई। नतीजा यह
हुआ कि दिसंबर और जनवरी जैसे ठंडे महीनों में भी जंगलों के कई जगहों पर आग लगी रही। इस आग को
बुझाने के लिए वन विभाग ने भी कोई इंतजाम नहीं किये। फरवरी का महीना एवरेज से ज्यादा गर्म रहा और
इसी के साथ फॉरेस्ट फायर की घटनाएं भी बढ़ गई। उत्तराखंड में शुष्क मौसम में पारा चढ़ने के साथ ही जंगल
धधकने का सिलसिला फिर शुरू हो गया है। मार्च में मौसम की मेहरबानी के चलते प्रदेश में जमकर वर्षा हुई
और जंगल की आग से राहत रही। हालांकि, अप्रैल में शुरुआत से ही मौसम शुष्क बना हुआ है। इसके बाद मई
और जून भी वन विभाग के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकते हैं। इस बीच वन विभाग ने हर वर्ष की तरह इस
बार भी जंगलों को आग से बचाने के लिए हर तरह के प्रयास शुरू करने की बात कही है। इनमें मास्टर कंट्रोल
रूम बनाने, क्रू स्टेशन स्थापित करने, वाच टावर व्यवस्थित करने, कंट्रोल बर्निंग और फायर लाइन साफ करने
के साथ जंगलों के आसपास के गांवों में लोगों को जागरूक करने जैसे कदम शामिल हैं। लेकिन, वन विभाग की
मुख्य समस्या कर्मचारियों की कमी है।जंगलों में आग बुझाने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार फॉरेस्ट गार्ड और
फॉरेस्टर के सैकड़ों पद अब भी खाली हैं। खासकर फॉरेस्ट गार्ड की नियुक्ति में लगातार विभाग की ओर से
लापरवाही की जा रही है। राज्य में जरूरत से काफी कम फॉरेस्ट गार्ड के पद स्वीकृत हैंस्वीकृत पदों की संख्या
करीब 3600 है, लेकिन इनमें से भी कुल 13 सौ फॉरेस्ट गार्ड ही नियुक्त हैं। वन विभाग जंगलों को आग से
बचाने के लिए आम नागरिकों पर ही मुख्य रूप से निर्भर है।

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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