अंर्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस पर सभी पुरुषों को समर्पित मेरी यह रचना
धूप में जो न चटखे
न शीत में सिकुड़ने लगे
ऐसा मनुज रचा ब्रह्मा ने
जिसे संसार ने
पुरुष कहा।
उसका विशाल
विचारों का धाम
इंसानियत को गिरने
न देगा कभी
ऐसा हमने माना,
स्वरूप तो न जाने
कितने हों मगर
हमने तो सिर्फ
उसके आभामण्डल को
स्पर्श किया।
हमने माना कि
बचा लेगा वो पल में
अपने बाजुओं की
ताकत से
इस धंसती हुई
धरती को,
बाधाओं से परे
एक जीवन की बखिया को
सिएगा वो,
और एक
विशाल भूखण्ड
तैयार करेगा,
जिस पर
अलग-अलग रंगों के
आदमी – औरतें
नये – नये करतब दिखाएंगे
और धूमिल होते
संस्कारों को
इन्द्रधनुषी रंगों से सजाएंगे।
एक लहर तूफानी भी हुई
जिसने मस्तिष्क में
उथल-पुथल कर
आलम बर्बादी का दिया,
पुरुष वो भी मगर
क्रूर साए से लिपा- पुता
जिसने समस्याओं के
घेरे बनाए और
तोड़ डाले सृष्टि के नियम।
अर्थ बदले, शब्द बदले
और फिर
दरवाजे खिड़कियां भी
खुले रह गये,तब
न स्त्री, स्त्री रह सकी
और न पुरुष, पुरुष रह सका।
अब रह गयी शेष
तो सिर्फ और सिर्फ
धर्म ध्वजा की पताकाएं
जिसे संभालेगा फिर
उसी पुरु का
कठोर संघर्ष।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शशि देवली
गोपेश्वर चमोली उत्तराखण्ड