उत्तराखंड वन विभाग में जीवों की क्षति का कोई ध्यान नहीं
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पर्यावरण संरक्षण में उत्तराखंड महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर साल तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं यह राज्य दे रहा है। इसमें अकेले वनों की भागीदारी एक लाख करोड़ की है।उत्तराखंड में हर साल बड़े पैमाने पर वन संपदा आग की भेंट चढ़ रही है। वर्ष 2016 से अब तक के आंकड़ों को देखें तो हर वर्ष जंगलों में आग की औसतन 1553 घटनाएं हो रही है, जिनमें 2605 हेक्टेयर वन क्षेत्र झुलस रहा है।हैरत की बात ये है कि वन विभाग छोटे-बड़े पेड़ों की क्षति का तो आंकलन करता है, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र में योगदान देने वाले जीवों की क्षति आंकलित ही नहीं की जाती। साथ ही जल स्रोतों को कितना नुकसान आग से पहुंचता है, इसका ब्योरा भी नहीं जुटाया जाता। यद्यपि पूर्व में इसे लेकर मंथन भी हुआ, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई।किसी भी मौसम में सुलग जा रहे जंगल अमूमन जंगलों में आग की घटनाएं फरवरी मध्य से मानसून आने तक की अवधि में अधिक होती है। इसीलिए इस समयावधि को संवेदनशील मानते हुए इसे फायर सीजन कहा जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह धारणा टूटी है। अब जंगल किसी भी मौसम में सुलग जा रहे हैं।पिछले वर्ष भी नवंबर व दिसंबर में कुछ स्थानों पर वनों में आग की घटनाएं सामने आई थीं। इसके पीछे के कारणों को लेकर विभाग मंथन में जुटा है, लेकिन यह भी सही है कि क्षति का सरसरी तौर पर ही सतही आंकलन हो रहा है।पारिस्थितिकी तंत्र में कीड़े-मकोड़े, सांप, बिच्छू जैसी अनेक प्रजातियोंं के साथ ही जंगल में उगने वाली बहुमूल्य वनस्पतियों को हर साल भारी क्षति पहुंच रही है, लेकिन यह कितनी हो रही है किसी को नहीं मालूम ? कारण ये कि इसके आंकलन की कोई व्यवस्था ही नहीं है? यही नहीं, झाडिय़ों व पेड़ों की टहनियों पर घोसलें बनाने वाले पक्षियों की नई संतत्ति को भी आग से भारी नुकसान पहुंच रहा है। और तो और जंगलों में आग के कारण होने वाले भूक्षरण से जलस्रोत भी प्रभावित हो रहे हैं। पूर्व में कई जगह जलस्रोत सूखने की बातें सामने आ चुकी हैं। इस सबके बावजूद विभाग की ओर से इस विषय को गंभीरता से न लिया जाना हर किसी को कचोटता है। राज्य में वनों को आग से बचाने के मद्देनजर महकमा तैयारियों में जुट गया है।इस राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। जंगल की आग पर काबू पाने की दिशा में फायर लाइन सबसे महत्वपूर्ण है, उत्तराखंड में वन्यजीव पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। कार्बेट टाइगर रिजर्व इसका उदाहरण है, जो वन्यजीव प्रेमियों का पसंदीदा स्थल है। राज्य में वन्यजीव पर्यटन के लिए 80 प्रतिशत से अधिक सैलानी कार्बेट का ही रुख करते हैं। इसी तरह राजाजी टाइगर रिजर्व व अन्य संरक्षित क्षेत्रों के पर्यटक जोन में भी प्रकृति का नजदीक से दीदार करने सैलानी पहुंचते हैं, लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है। उच्च हिमालयी क्षेत्र के संरक्षित क्षेत्रों में पहुंचने वाले सैलानियों की संख्या अंगुलियों में गिनने लायक होती है। इसे देखते हुए पिछले वर्ष वन विभाग ने विंटर टूरिज्म पर फोकस किया था। इसके लिए वन विभाग के तत्कालीन मुखिया ने गंगोत्री नेशनल पार्क समेत उच्च हिमालयी क्षेत्र से गुजरने वाली सड़कों पर ऐसे प्वाइंट विकसित करने की पहल की थी, जहां से सैलानी हिमालयी वन्यजीवों को देख सकें। कुछ समय यह प्रयोग हुआ भी, लेकिन वर्तमान में इस दिशा कोई पहल होती दिख नहीं रही। वन विभाग छोटे-बड़े पेड़ों की क्षति का तो आंकलन करता है, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र में योगदान देने वाले जीवों की क्षति आंकलित ही नहीं की जाती। अपनी वन संम्पदाओं के सदुपयोग से हम लोगों की आजीविका में कैसे वृद्धि कर सकते हैं, इस दिशा में हमें निरंतर प्रयास करने होंगे। पर्यावरण संतुलन विश्व की सबसे बड़ी चिंता है।