पुरुष का अन्तर्द्वन्द्व
हमारे समाज की ये बहुत बड़ी विडम्बना है कि वह पहले से ही ऐसी सोच बना लेता है कि मर्द को दर्द नहीं होता, मतलब वह हर हाल में स्ट्रांग है। लेकिन यह सरासर ग़लत है। पुरुष पीड़ा और उसकी संवेदना भी जटिल जीवन की व्याख्या करते हुए बताती है कि पुरुष भी दर्द की दहलीज से गुजरकर रोना चाहता है। वह रोता है, बिखरता है मगर भीतर ही भीतर जिसका परिणाम यह होता है कि वह तनाव में आकर आत्महत्या करने जैसा आत्मघाती कदम उठाने तक के लिए कई मजबूर हो जाता है।
पैदा होने से लेकर ही सामाजिक जीवनशैली और पारिवारिक व्यवहार पुरुषवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ते। उन्हें लगता है कि वे पुरुष को मर्दवादी कंडीशनिंग सोच क्रिएट करके असल मर्द को विकसित कर रहे हैं जो आगे चलकर सख्ती की चादर ओढ़कर अपने प्रतिबिम्ब स्थापित करेगा। मगर वो भूल जाते हैं कि मानवीय संवेदनाओं का जाल तो ईश्वरीय शक्ति होती है जो प्रत्येक मनुज हृदय में वास करती है। प्रवृति व प्रकृति से परे कोई भी व्यक्ति अपने शरीर और मन की अनुकूलता से हटकर व्यवहार नहीं कर सकता फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री।
कठोर ह्रदय रखते हुए यह सोचना कि मर्द को दर्द नहीं होता, यार मैं भी बिखर गया तो कैसे चलेगा……खुद ही के खिलाफ खुद के द्वारा खड़ी की गई दीवारें हैं जिनको अभेद्य बनाने के जतन भी स्वयं द्वारा ही किए जाते हैं। कठोरता का आवरण और उस पर बेदर्दी से सीमेंट चढ़ाकर और पक्का कर देना पुरुष के भीतर की वेदना को अन्तर्द्वन्द की ओर ले जाता है जहां पंहुचकर वह अक्सर हार जाता है।
मैंने कई पुरुषों को काउन्सलिंग प्रक्रिया के दौरान बातचीत में उनको समझा है और कई पुरुष मित्रों को सीधी सरल बातचीत में अपनी पीड़ा को व्यक्त करते परखा है। तब पाया कि लड़कों के भीतर की पुरुषवादी मानसिकता और परंपरा के ढकोसले ने उनको खोखला कर के रख दिया भीतर ही भीतर जिससे छुटकारा पाने के लिए वह आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है! सच भी यही है कि आज भी डिप्रेशन के शिकार महिलाओं की अपेक्षा पुरुष ही आत्महत्या ज्यादा करते हैं, आंकड़े यह स्पष्ट करते हैं।
समस्याओं के घेरे चाहे कैसे भी जाल बुनते हों समाधान का रास्ता कभी कभी गहरी खाई में गिर जाने को विवश करता है। आज का पुरुष समाज स्त्री की कार्यशैली की आजादी और उसके स्वतंत्र प्रेम करने की प्रवृति से अनभिज्ञ नहीं है। स्त्रियों की शिक्षा और तेजी से बदलती मानसिकता पुरुष के पतन में सर्वोपरि भूमिका निभा रही है इससे अलग जीवन यापन के लिए परिवार और नौकरी , समाज में अस्तित्व की लड़ाई व सर्वश्रेष्ठ कहलाने की होड़ बाजी जीतने की चाहत जैसा तो है ही।कुल मिलाकर बाहर और भीतर जंग का सा वातावरण बुनियादी धारणाओं को कुचलता हुआ सा महसूस हो रहा है जिसके परिणामों की पराकाष्ठा मानसिक अशांति का संकेत देती है।आज के युग में पुरुष लड़ रहा है और बस लड़ ही रहा है बिना थके , बिना रुके ।उसका द्वंद्व और आत्मसम्मान को बचाने की चाह उसे किसी भी कीमत पर थाह नहीं लेने देती। अक्सर कहा जाता है —-
‘मर्द होकर रोता है,’लड़का होकर लड़कियों की तरह आँसू बहा रहा है’ शर्म आनी चाहिए इससे अच्छा तो लड़की ही पैदा हो जाता, ‘इसको किस बात का डिप्रेशन, सुंदर बीवी, बच्चे, अच्छी खासी नौकरी’ आदि इत्यादि।उफ्फ! बेचारा मर्द करे तो क्या ? हो सकता है मेरा यह लेख सभी पुरुषों को स्वीकार्य न हो लेकिन अधिकतर इसे अपनी स्वीकारोक्ति देने से बिल्कुल भी नहीं हिचकिचायेंगे । मर्द इस संगति की जद में जबरदस्ती स्वयं को धकेल कर जीवन के प्रारूप को मुखौटा पहन कर बदल देने की फिराक में रहते तो हैं मगर असफलता ही हाथ लगती है। अगर वे समझते हैं कि अंश मात्र भी अगर दबाव या स्ट्रेस से वो गुजर रहे हैं तो उनको तत्काल ही स्वयं के भीतर झांककर उपचारात्मक पहलुओं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।