गरीबों का भोजन बन रहा है अमीरों की थालियों की शान
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पिछले कुछ वर्षों से भारत में भी जैविक के साथ मिलेट यानी मोटे अनाजों के बारे में लोगों में जागरूकता आई है और इनका उपयोग करना भी शुरू कर दिया है। कुछ दशक पहले जब गेहूं का उत्पादन कम होता था तब बहुत बड़ी आबादी ज्वार, बाजरा, कोदा, कुटकी जैसे अनाजों पर ही निर्भर हुआ करती थी। गेहूं और चावल तो तीज-त्यौहारों और मेहमानों के आने पर ही उपयोग किए जाते थे। उस समय मोटे अनाजों से मिलने वाली स्वास्थ्य सुरक्षा की जानकारी शायद बहुत कम ही रही होगी और यही वजह है कि धीरे-धीरे मोटे अनाजों का रकबा कम होते गया और इसके स्थान पर अन्य फसलों जैसे मक्का, सोयाबीन और तिलहन व दलहन फसलों ने ले लिया। भारत में हरित क्रांति के बाद कृषि में रासायनिक खाद, दवाई और उन्नत बीजों के साथ कृषि में मशीनीकरण और उन्नत तकनीक के चलते खाद्यान्न के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।साठ और सत्तर के दशक में भारत जहां विदेशों से खाद्यान्न का आयात करता था, अब पूरी तरह आत्मनिर्भर होकर निर्यातक देश बन गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2023 को ‘मोटे अनाज का अंतरराष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किए जाने और वर्ष 2023 के दौरान मोटे अनाजों को लोकप्रिय बनाने के लिये केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय तथा राज्यों द्वारा किए जा रहे प्रयासों के माध्यम से मोटे अनाज अधिकांश देशवासियों की थालियों में दिखाई देने लगेगा। यह स्वास्थ्य सुरक्षा के लिये भी एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2023 को मोटे अनाज का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किए जाने से बाजरा सहित अन्य मोटे अनाजों के निर्यात में भी आशातीत वृद्धि होने की प्रबल सम्भावना बन गई है। मोटे अनाजों में बाजरा, ज्वार, रागी, कंगनी, समा, कोदो इत्यादि आते हैं। तीन-चार दशक पहले भारत में ये मोटे अनाज भोजन के प्रमुख खाद्यान्न थे। लेकिन समय के साथ भारतीयों के भोजन में भी परिवर्तन आया। शहरों में मोटे अनाजों को ग्रामीणों और गरीबों का भोजन माना जाने लगा जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में भी भोजन का स्वाद बदलने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि मोटे अनाजों के प्रति उत्पादक किसानों का भी रूझान कम होने लगा। हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न के उत्पादन में भले ही उत्पादन में जबर्दस्त इजाफा हुआ हो लेकिन पोषक तत्वों की कमी के चलते जो बीमारियों जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह, एनीमिया आदि पहले केवल शहरी क्षेत्रों में ही ज्यादा हुआ करती थीं, इन बीमारियों ने अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी पैर पसार लिए हैं। अनुसंधान केंद्रों में हुए शोधों से जब मोटे अनाजों से स्वास्थ्य सुरक्षा के बारे में ज्ञात हुआ, इसके बाद मोटे अनाजों के प्रति जागरूकता के चलते मोटे अनाज कृषि मेलों और प्रदर्शनियों में दिखाई देने लगे। देश में मोटे अनाज यानी मिलेट्स के उत्पादों के नये-नये उद्योग भी शुरू हो गये और ये आम अनाज से खास अनाज में तब्दील होकर आम व्यक्ति की थाली के साथ खास लोगों यानी अमीरों की थालियों की भी शोभा बढ़ाने लगे। भारतीय परंपरा, संस्कृति, चलन, स्वाभाविक उत्पाद व प्रकृति द्वारा जो कुछ भी हमें दिया गया है, वह निश्चित रूप से किसी भी मनुष्य को स्वस्थ रखने में परिपूर्ण है। उन्होने कहा कि गेहूं और चावल के साथ मोटे अनाज का भी भोजन की थाली में पुन: सम्मानजनक स्थान होना चाहिए। कोविड महामारी ने हम सभी को स्वास्थ्य व पोषण सुरक्षा के महत्व का काफी अहसास कराया है। हमारी खाद्य वस्तुओं में पोषकता का समावेश होना अत्यंत आवश्यक है। मोटे अनाज को प्रोत्साहन वर्तमान समय की मांग भी है क्योंकि यह अनाज आधुनिक जीवन शैली में परिवर्तन के कारण सामने आ रही कई रोगों और कुपोषण को रोकने में सक्षम है। केंद्र सरकार ने मोटा अनाज साल को सफल बनाने के लिए काफी समय पूर्व से ही तैयारियां प्रारंभ कर दी थीं और अब यह सफलतापूर्वक धरातल पर उतरने को तत्पर हैं। मोटा अनाज साल को सफल बनाने के लिए केंद्र गवर्नमेंट कई योजनाएं लेकर आई है। राशन प्रणाली के अनुसार मोटे अनाजों के वितरण पर जोर दिया जा रहा है। आंगनबाड़ी और मध्याह्न भोजन योजना में भी मोटे अनाजों को शामिल कर लिया गया है। पीएम ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोटे अनाजों से बने व्यंजनों का उल्लेख करते रहते हैं। सर्वाधिक जरूरी बात यह है कि अब ”मोटा अनाज, खाओ और प्रभु के गुण गाओ” का नारा खूब चलने वाला है। मोटा अनाज पोषण का सर्वश्रेष्ठ आहार बोला जाता है। मोटे अनाज में 7 से 12 फीसदी प्रोटीन, 65 से 75 फीसदी कार्बोहाइड्रेट और 15 से 20 फीसदी डायटरी फाइबर तथा 5 फीसदी तक वसा मौजूद रहता है जिसके कारण यह कुपोषण से लडने में सक्षम पाया जाता है। मोटे अनाज का आयुर्वेद में भी बहुत महत्व है।भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के समय से ही मोटे अनाज की खेती के प्रमाण मिलते हैं तथा विश्व के 131 राष्ट्रों में इनकी खेती होती है. मोटे अनाज के अंतरराष्ट्रीय उत्पादन में हिंदुस्तान की हिस्सेदारी 20 फीसदी और एशिया में 80 फीसदी है। ज्वार के उत्पादन में हिंदुस्तान विश्व में प्रथम जगह पर है। हिंदुस्तान में ज्वार का सर्वाधिक उत्पादन महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना और मध्य प्रदेश में होता है. बाजरे के उत्पादन में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक आगे हैं.मोटा अनाज साल में हम सभी को बढ़ चढ़कर भाग लेना चाहिए और अपने भोजन में इसको नियमित रूप से जगह देना चाहिए क्योंकि इसमें कई विशेषताएं होती हैं। पोषण के मुद्दे में यह अनाज अन्य अनाजों- गेहूं और धान की तुलना में बहुत आगे हैं। इनकी खेती सस्ती और कम पानी वाली होती है। मोटे अनाज का भंडारण आसान होता है। भोजन में इन अनाजों को शामिल करने से स्वास्थ्य संबंधी कई बड़ी परेशानियों से बचना संभव हो सकता है। यही कारण है कि आज मोटा अनाज के प्रति गवर्नमेंट किसानों को सतर्क करने के लिए देशभर में विशेष जागरूकता अभियान चलाने जा रही है गरीबों की क्या बात करें, यहां तक कि कस्बों और गांवों में निम्न मध्यम वर्ग के लोग जो पहले ‘मोटे’ अनाज खाते थे। उन्होंने भी चावल और गेहूं को अपना लिया क्योंकि वे बाजार में आसानी से उपलब्ध थे। नतीजा यह हुआ कि देश भर में ‘मोटे’ अनाजों का रकबा 1960 के दशक के मध्य में 3.7 करोड़ हेक्टेयर से कम होकर 2010 के मध्य में 1.4 करोड़ हेक्टेयर रह गया। आईसीआरआईएसएटी (इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स) के मुताबिक, भारत में बाजरे की प्रति व्यक्ति सालाना खपत 1962 के 32.9 किलोग्राम के स्तर से गिरकर 2010 में 4.2 रह गई।सवाल यह उठता है कि देश अब ‘महीन’ अनाज से ‘मोटे’ अनाज की ओर क्यों जाना चाहता है? अमीर भारतीय ‘गरीब आदमी का खाना’ खाने के लिए इतने उतावले क्यों हैं? क्या इसलिए कि एक के बाद एक तमाम अध्ययनों से पता चला है कि ‘मोटे’ अनाज स्वास्थ्य के लिए सबसे अच्छे हैं? कहा जाता है कि वे प्रोटीन, विटामिन और सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर, लस (ग्लूटन) मुक्त, कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स (यह सूचकांक जितना कम होगा, खून में शुगर बढ़ाने में उतना ही कम सहायक होगा) वाले होते हैं। ‘महीन’ अनाज के विपरीत, मोटे अनाजों को ब्लड शुगर और ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने, कोलेस्ट्रॉल कम रखने, हृदय की रक्षा करने और पाचन स्वास्थ्य में सुधार में सहायक माना जाता है। अब जब संपन्न लोगों को इस बात का एहसास हो रहा है कि ये मोटे अनाज कितने फायदेमंद हैं तो वे इन्हें ‘मोटा’ नहीं कह रहे हैं। कुछ उन्हें बाजरा तो कुछ ‘पोषक अनाज’ कह रहे हैं। खाद्य व्यवसाय और सेलिब्रिटी शेफ उन्हें ‘सुपरफूड’ कह रहे हैं। केन्द्रीय वित्त मंत्री ने अपने 2023-24 के बजट भाषण में उन्हें ‘श्री अन्न’ कहा। लेकिन क्या हम इस तरह के महिमामंडन से परे भी कुछ कर रहे हैं? ‘श्री अन्न’ के लिए क्या है जट के पन्नों पर बेशक ‘श्री अन्न’ के लिए कुछ भी न हो, केन्द्रीय वित्त मंत्री को तालियां तो मिल ही गईं। “हमारे यहां लोगों की अनाज को लेकर पसंद बहुत मायने रखती है। इसी कारण कृषि का सामाजिक-आर्थिक कारकों और बाजार के साथ गहरा संबंध है। केवल चावल उगाने वाले समृद्ध किसानों की तुलना में यदि गरीब और निर्धन किसान मोटे अनाजों को वैकल्पिक फसलों के तौर पर चुनते हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर इन अनाजों की पसंद और उपज स्थायित्व कैसे बढ़ेगा? इसीलिए, वर्षा की बदलती परिस्थितियों के प्रति चावल उत्पादन की संवेदनशीलता से अवगत कराते हुए किसानों को चावल के साथ-साथ मोटे अनाज की मिश्रित फसलों के लिए प्रोत्साहित करना बेहतर विकल्प हो सकता है।” “खाद्य उत्पादन को जलवायु परिवर्तन से पूरी तरह सुरक्षित रखना मुश्किल है। किसानों को जलवायु के अनुकूल अनाज उत्पादन की ओर स्थानांतरित करने के लिए प्रोत्साहित करना इस दिशा में एक आसान पहल हो सकती है। जिस तरह चावल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए सार्वजनिक नीति और सार्वजनिक खरीद पर अमल किया गया, उसी तरह हम इसका उपयोग अनाज उत्पादन में विविधता लाने के लिए भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर यह कहना कतई गलत नहीं होगा की मोटे अनाजों के गुणों की ओर लोगों का ध्यान ही नहीं जा रहा है। चना, मक्का, ज्वार और बाजरा तो फिर भी बाजार में यत्र-तत्र दिखाई दे जाते हैं किंतु अन्य मोटे अनाज तो विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुके हैं। समय की मांग को देखते हुए क्या हम इन मोटे अनाजों को फिर से अपनाकर अपनी सेहत को बेहतर बनाए रखने के लिए जागरूक हो सकेंगे? इसका उत्तर तो आनेवाला समय ही बता पाएगा।