चिपको आंदोलन हिमालय के दर्द का इजहार  – डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

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चिपको आंदोलन हिमालय के दर्द का इजहार

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

26 मार्च का उत्तराखंड के इतिहास में खास महत्व है। यह तारीख उत्तराखंड ही नहीं पूरे विश्व में एक नजीर पेश कर गई जब​ पर्यावरण को बचाने के लिए पहाड़ की महिलाएं पेड़ों पर चिपक कर उनके कटाई का विरोध करने लगी। देखते ही देखते इस आंदोलन ने पूरे विश्व को जगाने का काम किया। जिसे चिपको आन्दोलन नाम दिया गया। उत्तराखंड में 27 महिलाओं ने पेड़ों को बचाने के लिए उनसे लिपटकर चिपको आंदोलन चलाया था। जो अपने में एक तरह का अनोखा
प्रदर्शन था। यह आंदोलन वास्तव में पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए उत्तराखंड के चमोली जिले के जंगलों में हुआ। गौरा देवी के नेतृत्व में 27 महिलाओं के समूह के द्वारा पेड़ों की कटाई बचाने के प्रयास किया। इस आंदोलन का उद्देश्य व्यवसाय के लिए हो रही वनों की कटाई को रोकना था और जब स्थानीय महिलाओं के समूह ने इसके लिए पेड़ों पर चिपक कर अपना विरोध प्रदर्शन किया तो देशभर में हलचल मच गई। इस आंदोलन के जरिए स्थानीय लोग वन
विभाग के ठेकेदारों द्वारा कटाई का विरोध कर पेड़ों पर अपना परंपरागत अधिकार जता रहे थे।

आंदोलन में भारी संख्या में महिलाओं ने भाग लिया था। चिपको आंदोलन वनों का अव्यावहारिक कटान रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था। रेणी में 2400 से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लडाने
को तैयार बैठे थे, जिसे गौरा देवी के नेतृत्व में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था। इस आंदोलन का नतीजा यह रहा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इदिरा गांधी ने हिमालयी वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 साल के लिए रोक लगा दी। बाद में यही आंदोलन हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, बिहार, तक फैला और सफल भी रहा। यह आंदोलन पर्यावरण के प्रति जागरुकता का प्रतीक भी बना। चिपको आंदोलन के बाद देश में
पर्यावरण को बचाने के लिए कई ऐसे आंदोलन हुए इस आंदोलन का नतीजा यह रहा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री ने  हिमालयी वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 साल के लिए रोक लगा दी। बाद में यही आंदोलन हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, बिहार, तक फैला और सफल भी रहा।
यह आंदोलन पर्यावरण के प्रति जागरुकता का प्रतीक भी बना। चिपको के बाद वनों, चरागाह और जल पर सामुदायिक नियंत्रण के लिए जमीनी पहलों की अनेक शृंखलाएं आयोजित की जा चुकी हैं। अध्येताओं ने इन संघर्षों का विश्लेषण कर बताया कि इन्होंने भारत के विकास पथ के
पुनर्संयोजन का रास्ता दिखाया है। देश की आबादी के घनत्व और उष्णकटिबंधीय पारिस्थितिकी की नाजुकता को देखते हुए तर्क दिए गए कि गहन ऊर्जा, गहन पूंजी, गहन संसाधन केंद्रित आर्थिक विकास के पश्चिमी मॉडल का अनुसरण करना भूल थी।देश ने जब 1947 में ब्रिटिश राज से आजादी पाई थी, तब उसे कहीं अधिक जमीनी, समुदाय-उन्मुख और पर्यावरण की दृष्टि से जवाबदेह विकास का मॉडल अपनाना चाहिए था। यह भी कहा गया कि कोई अब भी संशोधन कर सकता है। राज्य और नागरिक दोनों को चिपको के सबक पर ध्यान देना चाहिए और उसके अनुसार सार्वजनिक नीतियों और सामाजिक व्यवहार को संशोधित करना चाहिए। एक नए

आर्थिक विकास के मॉडल की जरूरत थी, जो कि भविष्य की पीढ़ियों के हितों और उनकी जरूरतों को प्रभावित किए बिना बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी से उबार सके।1980 के दशक में भारत में पर्यावरण संबंधी बहस अपने चरम पर थी। यह बहस कई स्तरों पर हुई। इसने पर्यावरणीय संकट से उठे नैतिक सवालों को सामने रखा, जिनमें पर्यावरणनीय स्थिरता को प्रोत्साहन देने के लिए राजनीतिक शक्ति के वितरण में आवश्यक बदलाव और ऐसी प्रौद्योगिकी से जुड़े सवाल शामिल थे, जो कि आर्थिक और पर्यावरणीय उद्देश्यों की एक साथ पूर्ति कर सकें।

इस बहस में संसाधन से जुड़े सभी क्षेत्र, वन, जल, परिवहन, ऊर्जा, जमीन और जैवविविधता शामिल थे। सरकार को मजबूर होकर पहली बार केंद्र के साथ ही राज्यों में एक पर्यावरण मंत्रालय बनाना पड़ा। नए कानून और नई नियामक संस्थाएं बनानी पड़ीं। पहली बार हमारे
अग्रणी उच्च संस्थानों में पर्यावरण से जुड़े सवालों पर वैज्ञानिक शोध को जगह मिली।1980 के दशक में पर्यावरण के मामले में जो कुछ हासिल किया गया, वह बाद के दशकों में, व्यापक रूप से 1991 में अपनाई गई आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के कारण गंवा दिया गया। उदारीकरण
कई मायनों में आवश्यक और अतिदेय दोनों था। नेहरू और इंदिरा काल के लाइसेंस-परमिट-कोटा
राज ने उद्यमशीलता को दबा दिया था और विकास को रोक दिया था। हालांकि, जबकि बाजार की स्वतंत्रता ने उत्पादकता और आय में वृद्धि की, एक क्षेत्र जिसे अभी भी विनियमन की
आवश्यकता थी, वह था पर्यावरणीय स्वास्थ्य और सुरक्षा।1990 के दशक और उसके बाद पर्यावरण का क्षरण तेजी से हुआ है और यह विडंबना ही है कि इस दौरान पर्यावरणविदों पर हमले भी बढ़े। खनन कंपनियों ने मध्य भारत के बड़े हिस्से में वनों को बर्बाद किया और आदिवासियों को बेदखल कर दिया और जिन लोगों ने इन अपराधों का विरोध किया उन्हें
नक्सली करार दिया गया और उन्हें अक्सर लंबे समय तक जेल में डाल दिया गया। जिससे (जैसा कि स्टेन स्वामी के मामले में हुआ) जेल में मौत तक हो गई। खनन और संसाधनों के दोहन के अन्य रूपों में शामिल कंपनियों ने सभी दलों के राजनेताओं के साथ घनिष्ठ साझेदारी बढ़ाई और अनुबंधों और सार्वजनिक जांच से दंडमुक्ति के बदले उनकी हथेलियां गरम कीं। मुख्यधारा के प्रेस में कारोबार-समर्थक स्तंभकार पर्यावरण कार्यकर्ताओं को बलि का बकरा बनाने
में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। चिपको के पचास साल बाद यदि सार्वजनिक बहसों में पर्यावरण की चिंता का जिक्र होता भी है, तो यह जलवायु परिवर्तन के साथ ही होता है।
वातावरण में गैसों के मानव-प्रेरित संचय के परिणाम आज शायद सबसे बड़ी पर्यावरणीय चुनौती बन सकते हैं। हालांकि यह कोई अकेली चुनौती नहीं है। सच यह है कि जलवायु परिवर्तन नहीं होता तब भी भारत एक पर्यावरणीय आपदा क्षेत्र होता। पूरी दुनिया में वायु प्रदूषण की उच्चतम दर उत्तर भारत के शहरों में पाई गई है। जल प्रदूषण शायद ही कम गंभीर है – वास्तव में, जिन महान नदियों के किनारे ये शहर ऐतिहासिक रूप से स्थित थे, वे जैविक रूप से मृत हो चुकी हैं।हर जगह भूजल का स्तर नीचे जा रहा है।

मिट्टी में रासायनिक सम्मिश्रण उच्च स्तर पर है। बेतरतीब और अनियमित भवन निर्माण से नाजुक तटीय पारिस्थितिकी तबाह हो रही है। पिछले पैराग्राफ में उल्लिखित पर्यावरणीय गिरावट के कई रूपों में केवल सौंदर्य प्रभाव नहीं है। इनकी गहन आर्थिक लागत भी है। वायु और जल
प्रदूषण लोगों को बीमार करते हैं और उन्हें काम से बाहर कर देते हैं। मिट्टी जब जहरीली होती है तो पूर्व में उत्पादक रही जमीन खेती के लायक नहीं रह जाती। वनों और चरागाह का क्षरण ग्रामीण आजीविका की सुरक्षा को कम करता है।पर्यावरण को होने वाले नुकसान के आर्थिक
परिणामों ने अमूमन भारत के नामी अर्थशास्त्रियों, जिनमें नोबेल विजेता भी शामिल हैं, का ध्यान नहीं खींचा है। हालांकि उनके कुछ कम चर्चित और जमीनी स्तर के कुछ सहयोगी इस सवाल को लेकर अधिक सजग हैं। एक दशक पहले अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने भारत में पर्यावरण क्षरण की वार्षिक लागत का आकलन किया था और बताया था कि यह करीब 37.5 खरब रुपये है, जो कि जीडीपी के 5.7 फीसदी के बराबर है (देखें मुत्थुकुमार मणि, संपादक,
ग्रीनिंग इंडिया ग्रोथः कॉस्ट, वेल्यूवेशन, ऐंड ट्रेड ऑफ्स, 2013)। यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि
भारत में पर्यावरण क्षरण का बोझ मुख्य रूप से गरीबों पर पड़ता है।1922 में रवींद्रनाथ टैगोर ने
अपने एक व्याख्यान में कहा था कि 'आधुनिक मशीनरी ने मानव को लूट की वृत्ति के लिए
प्रेरित किया, जिसने आरोग्यलाभ देने की प्रकृति की शक्ति को कम कर दिया। उनके मुनाफाखोरों ने ग्रह की संचित पूंजी में बड़ा गड्ढा खोद दिया। उन्होंने ऐसी जरूरतें पैदा कीं, जो
अप्राकृतिक थीं और इन जरूरतों की जबरन प्रकृति से पूर्ति की गई जहां मानव ने पानी को समाप्त कर दिया, पेड़ों को काट दिया, ग्रह की सतह को एक रेगिस्तान में बदल दिया।' उनकी चेतावनियों पर ध्यान देने के लिए अब भी देर नहीं हुई है।

लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून
विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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