उत्तराखंड में जल प्रबंधन की कमी के कारण सूखते स्रोत 

Team PahadRaftar

उत्तराखंड में जल प्रबंधन की कमी के कारण सूखते स्रोत

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

पर्यावरण में आ रहे बदलावों का असर मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड में भी साफ नजर आने लगा है। सूखते
जलस्रोत और घटता भूजल स्तर चिंता का सबब बना है। नीति आयोग की रिपोर्ट इसकी तस्दीक करती है।
रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली 60 प्रतिशत जल धाराओं से सदानीरा गंगा
और यमुना जैसी नदियां बनती हैं हिमालय क्षेत्र के ऊपरी तथा बीच के इलाकों में रहने वाले लोगों की जीवन
रेखा हैं। लेकिन पर्यावरणीय स्थितियों और एक दूसरे से जुड़ी प्रणालियों की समझ और प्रबंधन में कमी के कारण
यह जल स्रोत अपनी गिरावट की ओर बढ़ रहे हैं। यह कहना है इंडियन स्‍कूल ऑफ बिजनेस के भारती इंस्‍टीट्यूट
ऑफ पब्लिक पॉलिसी में रिसर्च रिसर्च फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक़ पानी के यह चश्मे
जलापूर्ति के प्रमुख स्रोत है और वह भूतल और भूगर्भीय जल प्रणालियों के अनोखे संयोजन से फलते-फूलते और
बदलते हैं। माकूल हालात में जलसोते या चश्मे के जरिए भूगर्भीय जल रिसकर बाहर आता है। यह संपूर्ण
हिमालय क्षेत्र के तमाम शहरी तथा ग्रामीण इलाकों में जलापूर्ति का मुख्य स्रोत है। भूतल जल निकासी नेटवर्क में
भी यह चश्मे जरूरी पानी उपलब्ध कराते हैं। हिन्दू कुश हिमालय (एचकेएच) क्षेत्र के अनेक इलाकों में भूगर्भीय
जलस्तर घट रहा है नतीजतन इन जल स्रोतों के जरिए पानी की आपूर्ति में भी गिरावट आ रही है। शोध के
नतीजों पर रोशनी डालते हुए अंजल कहते हैं, “अध्ययन से यह जाहिर होता है कि अधिक ऊंचाई पर जलवायु
के कारण होने वाले परिवर्तनों से नदियों और झरनों में पानी के प्रवाह में बदलाव हो रहा है। हिमालय के ऊपरी
और मध्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए यह जल स्रोत उनकी जीवन रेखा हैं.” “भूगर्भीय जल एचकेएच क्षेत्र
के जल विज्ञान का एक जरूरी हिस्सा है। अध्ययनों से पता चलता है कि कई स्थानों पर भूगर्भीय जलस्तर पहले
ही कम हो रहा है। मिसाल के तौर पर मध्य गंगा बेसिन में पहले ही भूजल ओवरड्राफ्ट दिख रहा है जिससे पानी
की आपूर्ति प्रभावित हो रही है राष्ट्रीय जल नीति 2012 और उसके बाद बनाई गई जल संबंधी नीतियों में स्प्रिंग
शेड पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। जैसा कि हम जानते हैं कि पानी के चश्मे हिमालय क्षेत्र में रहने वाले लोगों की जीवन रेखा हैं और जल सततता के लिहाज से भी वे बेहद महत्वपूर्ण है। वे ग्लेशियरों और भूतल पर बहने वाले पानी के साथ परस्पर क्रिया के लिहाज से एक जटिल प्रणाली हैं और निगरानी तथा डेटा की कमी के कारण उनके प्रवाह का प्रारूपीकरण करना मुश्किल है। इंसान की गतिविधियों और स्थानीय कारणों से जल स्रोतों में लगातार गिरावट हो रही है. यह स्थानीय प्रशासन और जमीन के उपयोगों में बदलाव दोनों की ही वजह से हो रहा है। बहरहाल जैसा कि आपके लेख में सही कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघलने से जल स्रोतों की स्वतंत्रता पर गंभीर खतरा पैदा हुआ है और स्थानीय समुदायों में इससे संभालने की क्षमता नहीं है.’’ जल नीति की अधिसूचना में पारिस्थितिकी और विकास अभिज्ञता पर आधारित नीति में जल संरक्षण को पारंपरिक तौर-तरीकों को शामिल करने के साथ ही जलस्रोतों के पुनर्जीवीकरण पर खास फोकस किया गया है। भूजल के निरंतर गिरते स्तर को थामने के लिए उपभोग सीमा तय करने पर जोर दिया गया है तो कृषि के लिए सूक्ष्म सिंचाई पर। सूखते जलस्रोतों ने सभी को बेचैन किया हुआ है। नीति आयोग की रिपोर्ट ही बताती है कि राज्य में करीब तीन सौ जलस्रोत और छोटी नदियां सूख चुकी हैं। भूजल का भी अनियंत्रित दोहन हो रहा है। ऐसे में राज्य में दिक्कतें नजर आने लगी हैं। इस सबको देखते हुए लंबे इंतजार के बाद अब राज्य की जल नीति बनी है। जल सम्बन्धी विधान का उल्लेख तीन हजार साल पुरानी मनु संहिता में किया गया था जिसमें जल को लोक सम्पदा-लोक सम्पत्ति कहा गया। इसकी देखभाल व देखरेख आम लोगों के द्वारा की जाती रही और जब भी इसका बेजा इस्तेमाल करने व प्रदूषित करने या इसके ढांचे को नुकसान पहुंचाने की कोशिश हुई तो जन समूह ने ही इसका विरोध किया। सदियों से पानी के उपयोग पर स्थानीय

समुदाय का हक बना रहा. 1815 में पहाड़ में अंग्रेजों के आने के बाद उन्होंने पानी के उपयोग को राजस्व वृद्धि
के उद्देश्य से बनाये अपने नियम कानूनों के अधीन लिया व प्रकृति के इस निःशुल्क उपहार को संरक्षित करने की
नीति बनी। ब्रिटिश राज लगने से पहले प्रकृति से मिले उपादानों के उपयोग और प्रबंध के लिए स्थानीय
परम्पराएं और चले आ रहे रिवाज ही काफी थे। सदियों तक पहाड़ में पानी पर स्थानीय समुदायों का स्वामित्व
व नियंत्रण रहा। पहाड़ में जल स्त्रोतों की कोई कमी न थी। मानसून पट्टी में होने से पर्याप्त बारिश होती थी।
बारिश के पानी को एकत्र करने के अपने परंपरागत तरीके भी विकसित होते गए। यहाँ हिम मंडित पर्वत श्रृंखलाएं थीं, हिमनद थे जिनसे गर्मी के मौसम में हिमजल प्राप्त होता था। सरिताएं निकलतीं थीं, झरने बहते थे,कुछ चौमास के मौसम में ही फूटते थे तो कई बारहमासा बहते। पहाड़ ताल-तलैया, चाल-खाल, झीलों और जीवनदायिनी नदियों से समृद्ध रहा. पारम्परिक रूप से नौले, धारे, कुंड, नानखाव, चाल-खाल, झील-तालाब,सिमार-गजार, छीण-झरने, गूल और घट-घराट इत्यादि जल की संरक्षण प्रणाली के उपकरण थे तो जल से जुड़ी आस्थाएं धार्मिक क्रियाकलापों व कर्मकांड का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी थीं। पानी के स्त्रोतों को बनाये-बचाये

रखने के लिए इनके निर्माण की कला का क्रमिक विकास भी होता रहा। इनकी वास्तुकला निर्माण के तरीके और
जल स्त्रोतों को टिकाऊ और सुंदर बनाने के लिए स्थानीय सामग्री व शिल्प का अधिक प्रयोग होता था।पहाड़ में
छोटे-बड़े झरनों और शिलाओं से रिसते-चूहते पानी को इकट्ठा कर जो छोटी तलैया बनाई जाती उसे ‘धान’ कहते।
इसका पानी जानवरों को नहलाई-धुलाई के काम आता और साग-सब्जी, मसाले-तिलहन की क्यारी सींचने के
लिए भी इससे टेक रहती. वहीं पहाड़ों में जहाँ तप्पड़, सेरे या घाटी वाला इलाका होता उनमें धारों के शीर्ष या
रिज पर चट्टानों के बीच गहराई में जमा बारिश का पानी ‘खाल’ में जमा हो जाता। गर्मी के मौसम में खाल का
यह पानी सिंचाई के काम आता. ऐसे ही पहाड़ के ऊँची जगहों पर शिला व चट्टान की दरारों व छेदों से जो
पानी चूता रहता वह ‘चुपटौला’ कहलाता। पशु पक्षी भी इससे अपनी प्यास बुझाते. ऐसी समतल भूमि जहाँ
साल भर पानी का कोई सुलभ स्तोत्र  होता उससे ‘गूल’ निकाली जाती जो खेतों में सिंचाई के काम भी आती और
इससे घट भी चलते. खेती की जमीन का ऐसा भाग जहाँ पानी का स्तर काफी नीचे गहरा होता और जिसकी
वजह से वहां कीचड़ की लथपथ रहती ‘सिमार’ कहलाता जो काफी उपजाऊ भी होता। पीने के पानी हेतु जमीन
के भीतर रिसे जल का संचय नौलों में होता। इनको बनाने की परंपरागत कारीगरी ऐसी विशेष होती कि जमीन
की सतह पर सामान्यतः वर्गाकार गड्ढे की रचना होती जो जमीन के तीन किनारों व ऊपर से बंद होता। चौथे
हिस्से को खुला रखते जिस ओर से नीचे उतर कर वहां जमा पानी को भरने के लिए सीढियाँ बनायीं जातीं।
नौलों के नजदीक बांज, सिलिंग, पीपल, पइयाँ, तिमिल, उतीस व आंवले के बोट रोपे जाते. जल के स्रोतों में
विशेषकर नौलों में उकेरी जा रही वास्तु कला इन पर किया जा रहा भव्य अलंकरण इन्हें कलात्मक स्वरुप प्रदान
करता। नौले सार्वजनिक संपत्ति होते व जल की सुलभ आपूर्ति के स्रोत होने के कारण उनकी साफ सफाई व

स्वच्छता पर बहुत ध्यान दिया जाता। दूसरी तरफ, धारे में स्त्रोत से या भूगर्भ से पानी पाइप या नलीनुमा
निकासी के द्वारा प्रवाहमान होता। सामान्यतः धारे के मुहं में सिंह या गाय के सिर की अनुकृति लगायी जाती।
इनके साथ आस्था का वह सम्पुट जनमानस की भावनाओं में निहित था जिसमें स्थानीय देवी-देवता को जल की
सुलभ आपूर्ति के लिए पूजा जाता उसका आभार व्यक्त किया जाता. इन सबसे मिल कर बनी जल से जुड़ी
संस्कृति जिसमें अपने आसपास के प्राकृतिक जल चक्र के साथ अनावश्यक छेड़ -छाड़ नहीं की जाती.जल स्त्रोतों
को बनाये-बचाये रखना पहाड़ की संस्कृति में पर्यावरण के विभिन्न घटकों के बीच तालमेल के बेहतर व कारगर
उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. भूमि का उपयोग भी पर्यावरण चक्र के अनुरूप होता.निचले भागों को
सिंचित भूमि या ‘तलाऊँ’, ऊपरी भागों की असिंचित भूमि ‘उपरौं’, दलदली भूमि को ‘सिमर’, बंजर भूमि को
‘बाँज’ व खेती योग्य तीखे ढलानों को ‘रेलों’ कहा जाता. जो भी उपलब्ध भूमि रहती उसमें अपने खेती बड़ी के
कामों को उपलब्ध जल की मदद से निबटा पहाड़ी खेती के तरीके विकसित हुए. तब जमीन पर आबादी का
घनत्व कम होने से भूमि की धारक क्षमता अधिक थी व अवलम्बन क्षेत्र में घास-पात, चारे व ईंधन हेतु जंगल से
आवश्यक साधन सुलभता व इफरात से प्राप्त कर लिए जाते. जल विवादों का नए नियमों में कोई समाधान नहीं
किया गया. जल अब राजस्व की प्राप्ति व आगम की प्राप्ति के स्त्रोत के रूप में देखा गया जिससे जनसमूह के
परंपरागत अधिकार पर रोक लगी. इसका सबसे बुरा असर यह हुआ कि लोग जल, जमीन और जंगल के प्रबंध
की परंपरागत शैली और जल स्त्रोतों के संरक्षण के शिल्प को बनाये और बचाये रखने के प्रति उदासीन होने लगे.
संसाधनों को संरक्षित रखने के लिए गांवों और उनमें निवास कर रहे समुदायों के बीच एक सौहार्दपूर्ण रिश्ता था
वह भी नए नियम कानूनों की चपेट में विवादों से भरने लगा. ऐसे असमंजस उपजे जिनके पीछे संस्कृति में किये
जाने वाले बदलाव व छेड़ -छाड़ मुख्य थी जिससे संरक्षण और संवर्धन के परंपरागत स्वाभाव शिथिल होते चले
गए. वर्ष 2025 तक राज्य में अनाज का उत्पादन 2.5 मिलियन टन तक ले जाने के लक्ष्य को पूरा करने के
सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया जाएगा। इसके साथ ही जल संसाधनों के आवंटन में पेयजल और घरेलू
उपयोग को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात जल नीति में कही गई है। इसके बाद स्वच्छता, पशुधन, सिंचाई,
जल विद्युत, वनीकरण, पर्यटन और कृषि आधारित उद्योगों को वरीयता के क्रम में पानी उपलब्ध कराने का

प्रावधान किया गया है।राज्य की जल नीति में यह भी प्रावधान किया गया है कि पानी की अधिकता वाले क्षेत्रों
से पानी की कमी वाले क्षेत्रों में विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से पानी पहुंचाने पर विचार किया जाएगा,
लेकिन परियोजना बनाते समय मानव जीवन, व्यवसाय, पर्यावरण और ईको सिस्टम पर पड़ने वाले प्रभाव का
किसी स्वतंत्र संस्था के माध्यम से आकलन करवाया जाएगा। वर्षा जल व अपशिष्ट पानी का फिर से इस्तेमाल
करने की दिशा में काम किया जाएगा और योजनाओं की माॅनीटरिंग के लिए सिस्टम बनाया जाएगा।
परियोजनाओं के आर्थिक मूल्यांकन में पर्वतीय क्षेत्रों की तीव्र ढलानों, मिट्टी के बहाव, लोगों के परम्परागत
अधिकारों, और आदिवासी तथा अन्य वंचित समाज के लोगों पर के हितों को भी ध्यान में रखा जाएगा। इसके
अलावा नई परियोजनाएं बनाने के बजाए पहले से चल रही योजनाओं को अधिक कुशलता के साथ संचालित
करने को प्राथमिकता देने की बात कही गई है।जल नीति में यह भी प्रावधान किया गया है कि पेयजल आपूर्ति के
लिए अधिकृत संस्था को विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार पेयजल उपलब्ध कराने के लिए जिम्मेदार
बनाया जाएगा। सार्वजनिक भागीदारी के माध्यम से वर्षा जल संरक्षण की दिशा में काम किया जाएगा। पानी
की कमी वाले क्षेत्रों में वर्षा जल, सतही जल और भूजल के इस्तेमाल के वैकल्पिक तरीकों पर काम होगा। राज्य
में जल संसाधन प्रबंधन और नियामक आयोग का गठन किया जाएगा।इस आयोग का गठन होने तक ‘उत्तर
प्रदेश जल संभरण एवं सीवर व्यवस्था अधिनियम-1975’ के तहत जलापूर्ति और सीवर व्यवस्था का कार्य
उत्तराखंड जल संस्थान द्वारा किया जाएगा। जलापूर्ति लाइन पर सीधे मोटर पंप लगाने को इस नीति में दंडनीय
अपराध माना गया है और इसके लिए भारी जुर्माना तय किया गया है। मंदिरों, मेलों और अन्य सार्वजनिक व
भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर वाटर एटीएम की व्यवस्था करने का प्रावधान किया गया है।जल नीति में जल
विद्युत उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने के साथ ही लगभग लुप्त हो चुकी परम्परागत पन चक्कियों (घराट) को
पुनर्जीवित करने का भी प्रावधान किया गया है। इसके लिए ग्राम पंचायतों, निजी संस्थाओं, गैर सरकारी
संगठनों, सरकारी संस्थाओं और बैंकों को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है। मसौदे में यह भी कहा गया है
कि जल स्रोतों पर अतिक्रमण करने और पानी के प्रवाह का रास्ता बदलने की किसी भी हालत में अनुमति नहीं
दी जाएगी। नहरों, नदियों आदि में कपड़े धोने को हतोत्साहित किया जाएगा। जल स्रोतों के आसपास प्रदूषण

फैलाने वालों के खिलाफ ‘उत्तराखंड जल प्रबंधन और नियामक अधिनियम-2013’ के तहत सख्त कार्रवाई की
जाएगी।यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्य में करीब 2.6 लाख प्राकृतिक जलस्रोत हैं। जलवायु परिवर्तन
और अन्य कारणों से करीब 12 हजार स्रोत सूख गए हैं। राज्य में लगभग 90 प्रतिशत जलापूर्ति भी इन्हीं स्रोतों
से होती है। 16,973 गांवों में से 594 गांव पेयजल के लिए प्राकृतिक जलस्रोतों पर ही निर्भर हैं। करीब 50
प्रतिशत शहरी क्षेत्र किसी न किसी रूप में जल संकट से जूझ रहा है। रिपोर्ट बताती है कि राज्य में पिछले डेढ़ सौ
वर्षों में ऐसी जलधाराओं की संख्या 360 से सिमटकर 60 पर आ गई है। यही नहीं, निचले क्षेत्रों में अनियंत्रित
दोहन से भूजल के स्तर में गिरावट दर्ज की गई है। इस सबको देखते हुए जल स्रोतों के संरक्षण के साथ ही वर्षा
जल संरक्षण पर विशेष ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इस दिशा में सरकार ने कदम उठाने शुरू कर दिए
हैं। मुख्यमंत्री ने पेयजल समेत सभी विभागों को इस दिशा में गंभीरता से कदम उठाने को कहा है।गंगा व यमुना
जैसी नदियों का उद्गम स्थल होने के बावजूद उत्तराखंड में पेयजल समस्या कम नहीं है। यह संकट न केवल
पर्वतीय क्षेत्र बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी है। पहाड़ में गांवों की बसागत ऊपर है और नदियां तलहटी में हैं। ऐसे में
तमाम गांवों के लिए ग्रेविटी पर आधारित पेयजल योजनाओं को जलस्रोत नहीं मिल पाते। उस पर पंपिंग पेयजल
योजनाओं के माध्यम से ऊंची पहाडिय़ों पर स्थित गांवों तक पानी पहुंचाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।
ऐसे में ग्रामीण आसपास के नजदीकी पेयजल स्रोतों से पीने का पानी जुटाते आए हैं, लेकिन मौसम में आए
बदलाव के कारण ये स्रोत भी सूखने लगे हैं।जल संस्थान की रिपोर्ट बताती है कि राज्य में लगभग 500 गांव ऐसे
हैं, जिनके पेयजल स्रोतों पर 10 से लेकर 90 प्रतिशत तक पानी कम हुआ है।नीति आयोग की ओर से जारी वाटर
मैनेजमेंट इंडेक्स-2018 में जल प्रबंधन के मामले में राज्य का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है।ग्रामीण क्षेत्रों में पानी
की भारी कमी है और राज्य में वाटर डाटा सेंटर भी नहीं है। वन क्षेत्रों में पानी रोकने के लिए गंभीरता से पहल
होनी चाहिए। यह काम केवल सरकार अथवा किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि इसके लिए विभागों के साथ
ही आमजन को सामूहिक भाव से आगे आना होगा मुख्यमंत्री ने पेयजल समेत सभी विभागों को इस दिशा में
गंभीरता से कदम उठाने को कहा है। जब तंद्रा टूटे, तभी भोर। उत्तराखंड में जंगलों की सुरक्षा की जिम्मेदारी

संभालने वाले वन विभाग की जल संरक्षण को लेकर अब तंद्रा टूटी है। यूं कहें कि उसे दायित्व बोध हुआ है तो
अनुचित नहीं होगा।

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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