14 दिसम्बर से किरूली गांव में पांडव नृत्य का होगा आयोजन, पांडवों की याद और गांव की खुशहाली की कामना लिये होता है पांडव नृत्य
संजय चौहान
पांडव नृत्य देवभूमि की अनमोल सांस्कृतिक विरासत है। पांडवों के बिना गढ़वाल के समाज, संस्कृति व परंपरा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सीमांत जनपद चमोली के किरूली गाँव में 14 दिसम्बर से पांडव नृत्य का आयोजन किया जा रहा है। जिससे गांव में रौनक लौट आई है। पांडव नृत्य का आयोजन पांडवों की याद में और घर गाँवों में खुशहाली के लिए किया जाता है। लोक मान्यता यह भी है पांडव नृत्य करने के बाद गोवंश में होने वाला खुरपका रोग भी ठीक हो जाता है।
ये है किरूली गांव में पांडव नृत्य का कार्यक्रम, आप सभी आंमत्रित हैं
14 दिसम्बर 2023 — प्रारम्भ
15 दिसम्बर 2023 — बाण निकालना (अस्त्र/शस्त्र)
16 दिसम्बर से 19 दिसम्बर 2023 – पांडव नृत्य
20 दिसम्बर 2023 — मोरी डाली (सल्ला)
21 दिसम्बर 2023 — केला पेड़
22 दिसम्बर 2023 — पंय्या डाली/ नारायण भगवान ब्यो और गेंडा वध कौथिग
23 दिसम्बर — गंगास्नान/ जलजात्रा
24 दिसम्बर — ब्रह्मभोज/ सामूहिक भोज/ समापन
ये है मान्यता
मान्यता है कि पांडवों ने केदारनाथ में महिष रूपी भगवान शिव के पृष्ठ भाग की पूजा-अर्चना की और वहां एतिहासिक केदारनाथ मंदिर का निर्माण किया। इसी तरह उन्होंने मध्यमेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ व कल्पनाथ (कल्पेश्वर) में भी भगवान शिव की पूजा-अर्चना कर मंदिरों का निर्माण किया। इसके बाद द्रोपदी समेत पांडव मोक्ष प्राप्ति के लिए बदरीनाथ धाम होते हुए स्वर्गारोहिणी के लिए निकल पड़े। लेकिन, युधिष्ठिर ही स्वर्ग के लिए सशरीर प्रस्थान कर पाए, जबकि अन्य पांडवों व द्रोपदी ने भीम पुल, लक्ष्मी वन, सहस्त्रधारा, चक्रतीर्थ व संतोपंथ में अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया था। पांडवों के बदरी-केदार भूमि के प्रति इसी अलौकिक प्रेम ने उन्हें गढ़वाल का लोक देवता बना दिया। यहां कदम-कदम पर होने वाला पांडव नृत्य पांडवों के गढ़वाल क्षेत्र के प्रति इसी विशेष प्रेम को प्रदर्शित करता है।
इस आयोजन में पांडवो के जन्म से लेकर स्वर्गारोहणी के रास्ते स्वर्ग जानें के विभिन्न अंशों का ढोलों की तालों और थापों पर मंचन किया जाता है। इस दौरान मोरी डाली/ देवदार डाली, केला पेड़, कीचक वध, पंय्या, नारायण भगवान की शादी, राजा पांडु के श्राद्ध हेतु गेंडे की खगोती लाना (गेंडा वध), और पांडु राजा के श्राद्ध का मंचन किया जाता है। जिसके बाद अंतिम दिन सामूहिक भोज दिया जाता है व पांडवों के अस्त्रों को बाण कंडी में रख दिए जाते हैं। इस तरह से लगभग 10-12 दिनों का ये आयोजन सम्पन हो जाता है।
ढोल-दमाऊं की तालों पर होता है नृत्य
पांडव नृत्य के आयोजन में पारम्परिक लोकवाद्य यंत्र ढोल दमाऊं की तालों का विशेष महत्व होता है। पांडव चौक उस स्थान को कहा जाता है, जहां पांडव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल-दमांऊ जो उत्तराखंड के पारंपरिक वाद्ययंत्र हैं, उनमें अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं। जैसे ही ढोली (औजी या दास) ढोलकी पर विशेष धुन बजाते हैं, पांडव नृत्य में पांडवों की भूमिका निभाने वाले व्यक्तियों पर पांडव अवतरित हो जाते हैं और वे नृत्य करने लग जाते हैं। इन व्यक्तियों को पांडवों का पश्वा कहा जाता है। पांडव पश्वों के अवतरित होने के पीछे भी एक अनोखा रहस्य छिपा हुआ है, जिस पर शोध कार्य चल रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि पांडव पश्वा गांव वाले तय नहीं करते। वह ढोली के नौबत बजाने (एक विशेष थाप) पर स्वयं अवतरित होते हैं। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रोपदी के अवतरित होने की विशेष थाप होती है। लोक के जानकार बताते हैं कि पांडव पश्वा उन्हीं लोगों पर अवतरित होते हैं, जिनके परिवारों में वह पहले भी अवतरित होते आए हैं।
लौटी आती है गांवो में रौनक!
पांडव नृत्य के आयोजन से पहाड़ के गांवो में भी काफी चहल-पहल नजर आती है। बंद पड़े घरों के ताले भी खुल जाते हैं। प्रवासी लोग भी अपने जड़ों से जुडने के लिए अपनी माटी थाती में पहुंचते हैं। मायके से मिले निमंत्रण और भौगोलिक दृष्टि से दूर-दूर रहने वाली ब्याहता बेटियां भी पांडव नृत्य देखने अपने मायके लौट आती हैं। कुल मिलाकर वीरान पड़े गांव में रौनक लौट आती है।