उत्तराखंड में वनों की सेहत का भी करनी होगी चिंता – डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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उत्तराखंड में वनों की सेहत का भी करनी होगी चिंता

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

यह राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह कि इस मामले में कदम-कदम पर उपेक्षा भी हो रही है। विशेषकर, जंगल और विकास के मध्य सामंजस्य का अभाव साफ दिखता है। ऐसे में पर्यावरण पर असर पड़ रहा तो राज्य की विकास यात्रा भी प्रभावित हो रही है। बात समझनी होगी कि
जीवन के लिए हवा, पानी व मिट्टी आवश्यक है तो बेहतर आबोहवा यानी अच्छा पर्यावरण भी। दुनिया भर में वन यानि जंगलों के महत्व और उनसे प्राप्त लाभों के बारे में समाज को जागरुक करने के लिए विश्व वन्य दिवस का आयोजन प्रतिवर्ष 21 मार्च को किया जाता है। विश्व वन्य दिवस को मनाने का उद्देश्य यह है कि विश्व के सभी देश मिलकर अपनी वन-सम्पदा की तरफ ध्यान दें और वनों को संरक्षण प्रदान करें। कई स्थानों पर वनों को काट-काट
कर उन्हें बेचा जा रहा है। मानव अपने स्वार्थ के लिए भूमि को बंजर बनाता जा रहा है। इसलिए हम सब को मिलकर इसके खिलाफ कदम उठाने चाहिए। वन ही हमारा जीवन है। यदि वन पेड़-पौधे नहीं होगें तो धरती पर
जीवन संभव नहीं होगा। आज हम आधुनिक बनने की होड़ में वनों को ही समाप्त करते जा रहे हैं। बड़ी-बड़ी इमारतें,कारखाने, फैक्ट्री इत्यादि बनाने की लालसा में वन समाप्त होने की कगार पर आ गए हैं। भारत में 657.6 लाख
हेक्टेयर भूमि (22.7 %) पर वन पाए जाते हैं। वर्तमान में भारत में 19.39 % भूमि पर वनों का विस्तार है। भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में सबसे ज्यादा वन पाए जाते हैं। भारत सरकार द्वारा सन 1952 ई. में निर्धारित "राष्ट्रीय वन नीति" के तहत देश के 33.3 % क्षेत्र पर वन होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वन-भूमि पर उद्योग-धंधों तथा मकानों का निर्माण, वनों को खेती के काम में लाना और लकड़ियों की बढ़ती माँग के कारण वनों की अवैध कटाई आदि वनों के नष्ट होने के प्रमुख कारण है। हमें हमारे देश की "राष्ट्रीय निधि" को बचाना चाहिए और इनका संरक्षण करना चाहिए, हमें वृक्षारोपण (पेड़-पौधे लगाना) को बढ़ावा देना चाहिए। आज पूरा विश्व वन की कमी से जूझ रहा
है। प्रत्येक देश में वनों का दोहन किया जा रहा है। वनों की कटाई के कारण आज प्रदूषण ने विकराल रुप धारण कर
लिया है। प्रदूषण से होने वाली बीमारियों से आज पूरे विश्व को खतरा है। इस प्रदूषण के दानव को रोकने का एकमात्र उपाय वनों का संरक्षण है। जिसके लिए आज सभी देशों को आगे आने की आवश्यकता है। आज अधिक से
अधिक पेड़ लगाने की जरुरत है जिसके द्वारा हमारे वायु मण्डल का सन्तुलन बना रहे और हमारे वायु मण्डल में बढ़ते वायु प्रदुषण को रोका जा सके। वनों के लगातार लुप्त होने और व्यावसाय के उद्देश्य से निरंतर की जा रही वनों की कटाई को रोकने के लिए देश में एक महत्वपूर्ण आंदोलन चलाया गया था, जिसे चिपको आंदोलन कहा गया था।
इस आंदोलन में पहाड़ी महिलाएं वनों ऐ की कटाई को रोकने के लिए वृक्षों से चिपककर खड़ी हो गई थीं जिससे इसका
नाम 'चिपको आंदोलन' पड़ा था। 26 मार्च, 1974 को पेड़ों की कटाई रोकने के लिए 'चिपको आंदोलन' अभियान शुरू किया गया था। जब उत्तराखंड के रैंणी गाँव के जंगल के लगभग ढाई हज़ार पेड़ों को काटने की नीलामी हुई

जिसका विरोध गौरा देवी ने अन्य महिलाओं के साथ किया था पर इसके बावजूद सरकार ठेकेदार के
निर्णय में बदलाव नहीं आया। जब ठेकेदार के आदमी पेड़ काटने पहुँचे तो गौरा देवी उनके 21 साथियों ने उन लोगों
को समझाने की कोशिश की। जब उन्होंने पेड़ काटने की जिद की तो महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उन्हें ललकारा
कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को भी काट लेना अंतत: ठेकेदार को जाना पड़ा। बाद में स्थानीय वन विभाग के अधिकारियों के सामने इन महिलाओं ने अपनी बात रखी। फलस्वरूप रैंणी गाँव का जंगल नहीं काटा गया इस प्रकार यहीं से "चिपको आंदोलन" की शुरुआत हुई। आज भी इतिहास में जब भी पेड़ों के संरक्षण की बात आती है तो उसमें चिपको आदोंलन का नाम अवश्य लिया जाता है। इस आंदोलन ने लोगों को वृक्षों की उपयोगिता बताई। कमजोर
समझी जाने वाली महिलाओं ने अपने दम पर पेड़ों की कटाई को रोका और दुनिया के सामने एक मिसाल पेश की।

मैती आंदोलन” की मशाल हमारे देश के लगभग 7000 से अधिक  गाँव और 18 राज्यों को प्रकाशित कर रही है। कल्याण सिंह रावत को पद्मश्री अवार्ड से नवाजा गया है, इन्हें बेस्ट इकोलॉजिस्ट सहित बहुत सारे पुरस्कार मिले हैं।
इनकी तारीफ  कनाडा के भूतपूर्व विदेश मंत्री फ्लोरा डोनाल्ड ने भी किया है। “मैती आंदोलन” की शुरुआत  यूएस,
नेपाल, यूके कनाडा और इंडोनेशिया मे भी हुई है जिसे हिमाचल प्रदेश ने भी अपनाया है। वन प्रदेश कहे जाने वाले उत्तराखंड को वनों के स्वास्थ्य की भी चिंता करनी होगी। वनाग्नि से लेकर भू कटाव, लेंटाना, काला बांस आदि का बढ़ना, जल स्रोतों के सूखने, बांज, बुरांश और बुग्यालों पर संकट आदि मुख्य चुनौतियां हैं जिनका सामना प्रदेश के वनों को करना पड़ रहा है, वनाग्नि की समस्या प्रदेश के सामने कई कारणों से बढ़ती जा रही है। मौसम में हो रहे
बदलाव के कारण यह समस्या विकराल रूप धारण कर रही है। सर्दियों में भी इस बार जंगल जले और यह सिलसिला लगातार जारी है। लेंटाना, काला बांस जैसी समस्याएं भी वनों की सेहत से खिलवाड़ का कारण बन रही
है। वन विभाग के मुताबिक इस तरह की खरपतवार का लगातार फैलाव हो रहा है। लेंटाना और काला बांस आदि को खत्म करने के लिए वन विभाग को लगातार बपना बजट भी बढ़ाना पड़ रहा है।स्वस्थ वनों के सामने एक चुनौती भू कटाव की भी है। शिवालिक में भू कटाव की दर सबसे अधिक पाई गई है। वनाग्नि के बढ़ते मामलों के कारण यह
समस्या भी लगातार बढ़ रही है। मौसम में बदलाव के कारण बारिश के पानी से भू क्षरण बढ़ रहा है। एक शोध के
मुताबिक प्रदेश में करीब 61 प्रतिशत वन वनाग्नि, भू कटाव सहित अन्य समस्याओं को लेकर अति संवेदनशील हैं।
इसी तरह 36 प्रतिशत वन संवेदनशील पाए गए हैं। साफ है कि वनों की सेहत पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में प्रदेश को अपनी बहुमूल्य वन संपदा का नुकसान उठाना पड़ सकता है। वनों पर दबाव बढ़ने से इनकार नहीं किया जा रहा है। प्रदेश में इस समस्या के समाधान के कोशिश भी की जा रही है। लेंटाना, काला बांस सहित
अन्य खरपतवार को समाप्त करना, पौधरोपण आदि को तवज्जो दी जा रही है। वनाग्नि एक बड़ी समस्या है। पर्यावरण को खासा नुकसान हो रहा है। वहीं प्राकृतिक जलस्रोतों को भी इससे खासा नुकसान हो रही है।
उत्तराखंड में जंगलों की सेहत सुधारने में प्रतिकरात्मक वनरोपण निधि प्रबंधन एवं योजना, यानी कैंपा की भूमिका
किसी से छिपी नहीं है। किसी भी योजना, परियोजना को हस्तांतरित होने वाली वन भूमि में खड़े जितने पेड़ों की बलि दी जाती है, उसके सापेक्ष 10 गुना अधिक पौधारोपण दूसरे क्षेत्र में किया जाता है। यह इसलिए कि आक्सीजन का भंडार कहे जाने वाले यहां जंगलों के क्षेत्र में कमी न आए। कैंपा के अंतर्गत ये कार्य निरंतर हो रहे हैं, लेकिन इन्हें
लेकर वह सजगता नजर नहीं आती, जिसकी आवश्यकता है। अब लैंसडौन और कालागढ़ वन प्रभागों में कैंपा से हुए
कार्यों को ही ले लीजिए। इन्हें लेकर अंगुलियां उठ रही हैं और स्वयं विभाग के भीतर से भी ये बातें बाहर आ रही हैं।
शासन ने इसका संज्ञान लिया है, लेकिन प्रश्न ये भी है कि कार्य शुरू होते से पहले ऐसी सजगता, सतर्कता क्यों नहीं
होती ? यही नहीं हिमालय की जंगलों की जैवविविधता के लिए ये आग किसी खतरे से कम नहीं हैं।  पर्यावरण संरक्षण में उत्तराखंड महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर साल तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं यह राज्य दे रहा है। इसमें अकेले वनों की भागीदारी एक लाख करोड़ की है।यद्यपि,वनों के संरक्षण की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं।

लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं
दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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