हरित क्रांति के बाद घोर उपेक्षा हुई मोटा अनाज की
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पांच दशक पहले हमारे खाने की आदतें पूरी तरह से अलग थीं। मोटे अनाज हमारे आहार का मुख्य घटक थे। हरित क्रांति के दौरान गेहूं और धान की खेती को सबसे अधिक महत्व दिया गया और इसके परिणामस्वरूप हमने गेहूं और चावल को अपनी भोजन की थाली में सजा लिया तथा मोटे अनाज को खाद्य श्रृंखला से बाहर कर दिया। जिन अनाज को हमारी कई पीढ़ियां खाती आ रही थीं, उनसे हमने मुंह मोड़ लिया और आज पूरी दुनिया उसी मोटे अनाज के महत्व को समझते हुए उसकी ओर वापस लौट रही है। मोटे अनाज पोषक तत्वों का भंडार हैं। चावल और गेहूं की तुलना में इनमें 3.5 गुना अधिक पोषक तत्व पाए जाते हैं। मोटे अनाजों में बीटा-कैरोटीन, नाइयासिन, विटामिन-बी6, फोलिक एसिड, पोटेशियम, मैग्नीशियम, जस्ता आदि खनिज लवण और विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद फायदेमंद डायटरी फाइबर भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं।पोषण और स्वास्थ्य की दृष्टि से इसके फायदों के कारण ही इन्हें सुपरफूड भी कहा जाता है। इनका सेवन वजन कम करने, शरीर में उच्च रक्तचाप और अत्यधिक कोलेस्ट्राल को कम करने, हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसे रोगों के जोखिम को कम करने के साथ-साथ कब्ज और अपच से भी निजात दिलाने में मदद करता है। मोटे अनाज पोषक तत्वों से भरपूर होने के कारण स्वास्थ्यवर्द्धक तो हैं ही, साथ ही ये हमें कई बीमारियों से बचाते हैं। मोटे अनाजों का हमारे भोजन की थाली से गायब होने का प्रभाव दिखने लगा है। भरपेट भोजन के बावजूद कुपोषण या अल्पपोषण की समस्या आ रही है। ऐसा भोजन के रूप में गेहूं और चावल पर अत्यधिक निर्भरता के कारण है।भोजन में खनिज लवणों और डायटरी फाइबर की अपर्याप्त मात्रा के कारण मधुमेह, एनीमिया, हृदय और गुर्दे से संबंधित गैर-संक्रामक बीमारियों का प्रकोप बढ़ा है। मोटे अनाज में मौजूद पोषणीय एवं औषधीय गुणों के आधार पर इन्हें भविष्य के भोजन के रूप में देखा जा रहा है। मोटे अनाज खाद्य सुरक्षा और पोषण सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। बढ़ती आबादी की पोषण जरूरतों को पूरा करने और तेजी से बढ़ रही जीवनशैली से संबंधित बीमारियों मधुमेह, कैंसर, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप आदि के रोकथाम में मोटे अनाजों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। उनके इस महत्व को देखते हुए अपनी थाली में उन्हें शामिल करना आवश्यक हो गया है। ऐसा करना हर प्रकार से लाभदायक होगा। अनाज (कम पौष्टिक) चावल और गेहूं को पसंद करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि समग्र खाद्य टोकरी में मोटे अनाज की हिस्सेदारी घट गई। हरित क्रांति से पहले समग्र खाद्य टोकरी में मोटे अनाज की हिस्सेदारी 20 फीसदी थी। यह हरित क्रांति के बाद गिरकर बमुश्किल पांच से छह फीसदी हो गई।मांग लगातार कम होने और सरकार की ओर से बाजार में मदद नहीं मिलने से मोटे अनाज की पैदावार निरंतर कम होती चली गई। लिहाजा मोटे अनाज का क्षेत्रफल निरंतर गिरता गया। हाल यह हो गया कि हरित क्रांति से पहले जितने क्षेत्र में मोटे अनाज की खेती होती थी, वह उसके आधे क्षेत्र में होने लगी। हालांकि रोचक तथ्य यह है कि मोटे अनाज की उत्पादकता दोगुनी से अधिक हो गई। महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि मोटे अनाज सहित गिनी-चुनी फसलों में ही वैश्विक औसत उत्पादन से अधिक भारत का औसत उत्पादन है। भारत में मोटे अनाज की औसत उत्पादकता 1239 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है जो वैश्विक उत्पादकता 1229 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक है। इसका प्रमुख कारण यह है कि मोटे अनाज की ज्यादा पैदावार देने वाली कई किस्मों और हाईब्रिड किस्मों का विकास किया गया है। इससे एग्रोनॉमिक्स की कई प्रैक्टिस बेहतर हुई हैं। बहरहाल इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि एक समय में जो स्थान मोटे अनाज को प्राप्त था, उसे वह बढ़ावा मिलने पर भी पारंपरिक भोजन में पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर पाएगा। एक समय मोटे अनाज की चपाती, इडली, डोसा बनाए जाते थे। हाल यह था कि आज जो पारंपरिक व्यंजन गेहूं, चावल या रागी से बनाए जा रहे हैं, वे सभी मोटे अनाज से बनाए जाते थे। हालांकि आधुनिक किस्म के स्नैक्स और प्रचलित स्वाद के अनुसार मूल्य वर्धित उत्पाद के जरिये मोटे अनाज की खपत बढ़ाई जा सकती है। लिहाजा यह जरूरी हो गया है कि मोटे अनाज पर आधारित प्रसंस्करण खाद्य इकाइयों में व्यापक स्तर पर निवेश किया जाए। इस समय दुनिया का सबसे बड़ा मोटा अनाज उत्पादक देश भारत ही है। जहां प्राचीन काल से इन्हें उगाया और खाया जा रहा था, लेकिन हरित क्रांति आने के बाद इनकी घोर उपेक्षा हुई. गेहूं-धान के मुकाबले इनकी हैसियत कम हो गई। इसके बावजूद कुछ किसानों ने इन अनाजों को उगाना और इनके गुणों को जानने वालों ने इन्हें खाना बंद नहीं किया था। आज जब दुनिया में इन अनाजों के उत्पादन की बात हो रही है तब ऐसे लोगों की बदौलत ही भारत का नाम सबसे ऊपर दिखाई देता है। ऐसे में समझ सकते हैं कि भारत की पहल पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने यूं ही साल 2023 को इंटरनेशनल मलेट ईयर के रूप में मनाने का निर्णय नहीं लाया। आजादी के एक दशक बाद तक भारत की बड़ी आबादी मोटे अनाज पर निर्भर थी, लेकिन हरित क्रांति की आंधी से गेहूं और चावल के उत्पादन में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई. तो वहीं मोटे अनाज को भूला दिया गया है, लेकिन बीते एक दशक से देश के अंदर मोटे अनाज की मांग बढ़ने लगी है। दुनिया में मोटे अनाज को मुख्यत: भारत और अफ्रीका की फसल कहा जाता है। मसलन इन दोनों देशों में प्राचीन समय से मोटे अनाजोंं की खेती हो रही है। इसी कड़ी में भारत में 10 प्रकार के प्रमुख मोटे अनाज का उत्पादन होता है. इन 10 प्रमुख मोटे अनाजों में ज्वार, बाजरा, रागी (मंडवा), रामदाना, कुट्टू, कंगनी, कोंदों, सावां, सामा, चेना, प्रोसो शामिल है. वस्तुतः हर वह भोज्य पदार्थ जिसे भारतीयों द्वारा पारंपरिक रूप से हजारों वर्षों से खाया जाता रहा था किंतु कथित आधुनिकता की नकल के कारण जिन भोज्य पदार्थों को भारतीयों ने तिरस्कृत किया, उसे आज पश्चिम में वैज्ञानिक खोजों के आधार पर स्वीकार किया जा रहा हैइन मोटे अनाजों को जब हम संस्कृति और स्वास्थ्य से जोड़ देंगे, तो ये जन-जन के लिए उपलब्ध हो जाएंगे और इनका उत्पादन भी बढ़ जाएगा। प्रकृति प्रदत्त यह अनमोल उपहार वास्तव में किसान हितैषी उपहार भी है और जब जन-जन की थाली में मोटा अनाज जाएगा, तो किसान की जेब भी खाली नहीं रहेगी। कम लागत में उत्पादन, उपज का सरल टिकाऊ भंडारण और निर्यात से अन्नदाता किसान खुश रहेगा। सस्ते पोषण से स्वस्थ और सशक्त भारत का निर्माण भी होगा।। मगर ये प्रयास तभी सफल होंगे जब मोटे अनाज का रकबा और उत्पादन बढ़ाने के लिए उचित मूल्य और सुनिश्चित खरीद की व्यवस्था की जाए।