पर्वतीय क्षेत्र का स्वर्णिम काल रहा कत्यूर

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पर्वतीय क्षेत्र का स्वर्णिम काल रहा कत्यूर

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड

उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल के जिला बागेश्वर में गोमती और सरयू नदी के बीच फैली घाटी को कत्यूर घाटी के नाम से जाना जाता है। यह घाटी 142 वर्ग किमी के इलाके को खुद में समेटती है, इसमें 189 गाँव शामिल हैं। कत्यूरी शासकों की राजधानी बैजनाथ हुआ करती थी। यहाँ आज भी रणचूलाकोट, तैलीहाट, सेलीहाट, गढ़सेर और झाली-माली के रूप में इस राजधानी के खंडहर मौजूद हैं। मूलतः इस राजधानी की स्थापना जोशीमठ में की गयी थी। बाद में नागपंथी नर सिंह के कहने पर इसे बैजनाथ स्थानांतरित किया गया, जिसे तब कर्तपुर, कर्तिकेयपुर कहा जाता था। अल्मोड़ा जिले की बौरारो पट्टी में कौसानी से आगे हरछीना से कत्यूर की शुरुआत होती है। गोमती नदी के प्रवाह क्षेत्र में बसा यह परगना तीन पट्टियों में बंटा हुआ हैमल्ला, बिचला और तल्ला कत्यूर.कत्यूरी शासक मूलतः खश प्रजाति से ताल्लुक रखते थे। अभिलेखों से पता चलता है कि कत्यूरी बड़े पराक्रमी, कला प्रेमी और विद्वानों का आदर करने वाले हुआ करते थे। इनका राज्य इस पर्वतीय क्षेत्र का स्वर्णिम काल हुआ करता था। कत्यूर राजवंश की प्रमुख नहर बयालीसेरा, राजसेरा समेत गड़सेर, मन्यूड़ा, पचना, बिमौला, मटेना, पाये, भेटा, टानीखेत आदि दर्जनों नहरों की सिचाई विभाग अभी तक सफाई भी नहीं करा पाया है। ऐसे में नहरों में पानी नहीं चलने से काश्तकारों को गेहूं बुवाई की चिंता सता रही है। इस बार कत्यूर घाटी में आधे भादो के बाद बारिश नहीं पाई है। जिससे कत्यूर घाटी में सूखे की स्थिति पैदा हो गई है। दिन में बैसाख-जेठ के महीने की सी धूप लग रही है। खेत सूख गए हैं। खेतों में हल व ट्रैक्टर चलाना मुश्किल हो गया है। बिना सिंचाई के खेत नहीं जोते जाएंगे। बारिश हो नहीं रही है।अब काश्तकारों के पास सिंचाई ही एकमात्र विकल्प है लेकिन विभाग नहरों में पानी चलाने के लिए गंभीर नहीं है।हिमालयी राज्य के मध्ययुगीन राजवंश ‘कत्यूरियों’ की कुमाऊं में एक और घाटी बैजनाथ गरुड़ (बागेश्वर) के बाद में दूसरी कत्यूर घाटी तिपौला (ताड़ीखेत) में भी है। अब तक गुमनाम इसी स्थल पर कत्यूरराजवंश की वीरांगना राजमाता जियारानी चित्रेश्वर (चित्रशिला रानीबाग हल्द्वानी) जाते वक्त अपने जांबाज सैनिकों के साथ कुछ दिन ठहरी थी। लोकमान्यता एवं लोकगाथा के अनुसार राजमाता जियारानी ने अपनी व बहादुर सैनिकों की प्यास बुझाने के लिए जिस जगह कटार मार जुड़वा जलस्रोत ढूंढे, वहां पर सातवीं सदी की विशिष्ट शैली में ग्रेनाइट पत्थर पर उकेरी गई भगवान शिव, ब्रह्मा व शक्ति स्वरूपा मां की मूर्तियां कत्यूरियों की मौजूदगी का प्रमाण देती है। कत्यूर घाटी आज भी महिलाएं पल्ट प्रथा से काम कर रही हैं। पल्ट की रस्म को महिलाएं बखूबी निभाती हैं। इसके तहत एक-दूसरे के खेती से संबंधित कामों में हाथ बंटाती हैं। यह प्रथा गांवों की एकता, आपसी, मेलजोल व स्नेह की अद्भुत बानगी है। इस देश के लगभग सभी क्षेत्र में शौर्य, बलिदान और त्याग की पराकाष्ठाओं के अनेक उदाहरण मौज़ूद हैं। लेकिन संसाधनों की कमी के कारण देशभर में तमाम ऐसे नायक-नायिकाओं को उस स्तर की पहचान नहीं मिल पाई, जिसके वो हक़दार हैं। माना जाता है कि कत्यूर शासकों द्वारा आठवीं शताब्दी में राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) से बैजनाथ स्थानांतरित की गयी। यहाँ पर नागर शैली में निर्मित मुख्य मन्दिर शिव को समर्पित होने के साथ साथ सत्रह और मन्दिर हैं. जो विभिन्न पौराणिक देवी देवताओं – सूर्य, चंडिका, ब्रह्मा, गणेश, पार्वती, कुबेर आदि को समर्पित है. मुख्य मन्दिर का शिखर भाग ध्वस्त होने के कारण वर्तमान में धातु की चादर से तैयार किया गया है। इतिहासकार कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित इन मंदिरों का निर्माण काल नौवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य मानते हैं। बार-बार कुमाऊं पर गोरखों और रुहेलों द्वारा आक्रमण करने और मन्दिरों को क्षति पहुंचाने के कारण मन्दिर आज मूल स्वरुप में ही है, संदेह है। राष्ट्रीय धरोहर होने के कारण यह मन्दिर समूह आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अधिगृहित है। मन्दिर से नदी में उतरने के लिए पत्थरों की सीढियां बनी हुई है जो कि एक कत्यूरी महारानी द्वारा तैयार करवाई गई। यहाँ शिव मन्दिर की मान्यता इसलिए भी अधिक है कि हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव और माँ पार्वती का विवाह यहीं गोमती व गरुड़ गंगा के संगम तट पर संपन्न हुआ था। बैजनाथ मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। क्योंकि शिव को ही वैद्यनाथ अर्थात कायिक विज्ञान का ज्ञाता माना जाता है। श्रृद्धालुओं को यह शांत व साफ़ सुथरा देवस्थान अधिक भाता है तभी हर वक्त भक्तों की भीड़ लगी रहती है। मां पार्वती की आदमकद मूर्ति और उसके सामने ही शिवलिंग की स्थापना होने से यहां का महत्व और भी बढ़  जाता है। पास ही नदी के किनारे पानी को रोककर तालाब का रूप दे दिया गया है, जिससे उसमे काफी महाशीर मछलियां कलाबाजियां कर रही थी। हमारे चालक राणा जी मछलियों के बड़े शौक़ीन हैं, देखकर उनके मुंह में पानी आ जाता है। हिन्दू धर्मशास्त्र विष्णु पुराण में भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक “मत्स्य अवतार” भी हैं. शायद इसलिए आस्तिक लोग पास से ही चने व मूंगफली के दाने खरीद कर मछलियों को खिला रहे थे।

उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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