मोटे अनाज की सरकारी खरीद सुनिश्चित करना भी जरूरी – डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

Team PahadRaftar

मोटे अनाज की सरकारी खरीद सुनिश्चित करना भी जरूरी

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

मोटे अनाज को प्रचलन में लाने के लिए सरकार द्वारा प्रचार – प्रसार किया जा रहा है। लोगों को इसके प्रति जागरूक किया रहा है। मोटा अनाज भारत में काल से चलता आ रहा है। लेकिन समय के साथ लोग मोटे आनाज
को भूलते गए और हमारी थाली से गायब हो गया। जबकि मोटे अनाज का वर्णन हमारे प्रचीन साहित्यों में भी मिलता है भारत हमेशा से ही कृषि प्रधान देश है। पिछले कुछ सालों में ही यहां गेहूं-चावल खाने का चलन बढ़ा
है, लेकिन इससे पहले देश मोटा अनाज से समृद्ध था। यहां के लोग पहले से ही मोटा अनाज खाकर निरोगी काया का वरदान ले चुके हैं। इससे तमाम व्यंजन बनाए जाते रहे हैं।

इस बात का उल्लेख तमाम पुराने दस्तावेजों और साहित्यों में मिलता हैं। इनमें बताया गया है कि बाजरा हमारी डाइट से लेकर पाक कला, अनुष्ठानों और बड़े लेवल सोसाइटी का ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। कालिदास ने अपने अभिज्ञान शाकुतलम में फॉक्सटेल मिलेट यानी कंगनी का उल्लेख किया है। उन्होंने अपनी इस रचना में ऋषि कण्व को राजा दुष्यंत के दरबार में शंकुतला को विदा करते हुए कंगनी डालते हुए दिखाया गया है। यहां कंगनी के जरिए शुभ प्रकृति को इंगित किया गया है। यजुर्वेद में भी मोटा अनाज की खेती और इसके इस्तेमाल का उल्लेख मिला है। इतना ही नहीं, सुश्रुत ने अपनी सहिंता में अनाजों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित किया है, जिसमें धन्य वर्ग, खुधान्य वर्ग और समिधान्य वर्ग आदि। इनमें खुधान्य वर्ग में कई प्रकार के मोटा अनाज का
इस्तेमाल होता रहा है। कन्नड कवि कनकदास ने अपनी रचना रामधन्या चरित्र में रागी को कमजोर वर्ग के अनाज के तौर पर चिन्हित किया है। उस समय रागी ने शक्तिशाली चावल के तौर पर बाकी अनाजों में अपनी
जगह बनाई और समाज को सेहतमंद और शक्तिशाली बनने का संदेश दिया।इसके अलावा, कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में मोटा अनाज के सही इस्तेमाल की विधि बताई है। कौटिल्य ने लिखा है कि भिगोने और उबालने पर बाजरा के कई गुण समाहित हो जाते हैं।  अबुल फ़ज़ल ने भी अपनी रचना आईन-ए-अकबरी में मोटा अनाज और देश में इनकी खेती के लिए अनुकूल अलग-अलग इलाकों का भी डोक्यूमेंटेशन है। एक वह दौर था जब लोग सांवा,कोदो, काकुन, डबला, मक्का, बाजरा, ज्वार, मडुआ जैसे अनाज इसलिए खाते थे क्योंकि गेंहू-चावल जैसे पतले अनाज आसानी से मयस्सर नहीं थे। पतले अनाज की पैदावार का कम होना इसकी बड़ी और महत्वपूर्ण वजह थी। लेकिन
हरित क्रांति के बाद जैसे-जैसे पतले अनाज की उपलब्धता बढ़ी, मोटाअनाज आम-आदमी की थाली से गायब होने लगे। बीसवीं शताब्दी के आखिरी पड़ाव में तो यह लोगों के दिल-दिमाग से भी बाहर हो गए। स्थिति यह हो गई कि नई पीढ़ी के लोग मोटे अनाज के नाम पर प्रश्नवाचक चेहरा बनाने लगे। दरअसल उन्हें न तो उनके नाम पता होते और न ही अहमियत। अगर कोई जानता भी होता तो उसके बारे में बात करना भी आउट आफ फैशन समझता।
पारंपरिक तौर पर पौष्टिकता, पानी व खाद की कम आवश्यकता और जटिल परिस्थितियों में भी आसानी से उपजने की खूबी के कारण मोटे अनाजों की खेती की जाती है। एक समय भारत में लगभग हर घर में खाने की थाली में कोई
न कोई मोटा अनाज अवश्य मिल जाता था। हमारे कुल अनाज उत्पादन में 40 प्रतिशत तक की इनकी हिस्सेदारी रहती थी। धीरे-धीरे स्थिति बदली और थाली से ये अनाज दूर हो गए। हम मोटे अनाजों के सबसे बड़े उत्पादक और दूसरे सबसे बड़े निर्यातक तो हैं, दरअसल, हरित क्रांति के दौर में सरकारी नीतियों के कारण भारत में मोटे अनाज की खेती के प्रति अरुचि बनती गई। नतीजा यह है कि इनका रकबा 75 प्रतिशत तक कम हो गया है। व तकनीक एवं अन्य सुविधाओं के दम पर 1965 की तुलना में प्रति हेक्टेयर इनकी उत्पादकता ढाई गुना तक हो गई है, लेकिन
रकबा इतनी तेजी से घटा कि थाली से ये अनाज पूरी तरह गायब होते चले गए। इनकी जगह गेहूं, धान और अन्य नकदी फसलों ने ले ली। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद जैसे कदमों से अन्य अनाजों को बढ़ावा
भी खूब दिया।लेकिन कुल अनाज में इनकी हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से भी कम रह गई है।अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोटे अनाज वर्ष-2023 की घोषणा की गई है। भारत सरकार भी देश में मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को बढ़ावा
देने के लिए अभियान चला रही है। मोटे अनाजों के उत्पादन में छलांग तभी संभव है, जब इनकी बाजार में मांग बढ़े और किसानों को मोटे अनाज उत्पादन की तरफ आकर्षित किया जाए। जब तक मिलेट्स आधारित आहार के लिए बाजार में मांग नहीं बढ़ती, तब तक किसानों को मिलेट्स उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करने के लिए इनके लिए एमएसपी सुनिश्चित करने और मिलेट्स उत्पादकों से एमएसपी मूल्य पर खरीदने की व्यवस्था करनी पड़ेगी।विश्व में भारत मोटे अनाज उत्पादन का मुख्य केन्द्र है। देश अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष-2023 मना रहा है। यही सही समय है कि भारत सरकार मोटे अनाजों में प्रमुख अनाज जैसे बाजरे, ज्वार और रागी के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)
घोषित करने के साथ ही मोटे अनाजों के कुल उत्पादन का एक तिहाई सरकारी खरीद कर छोटे और मझले किसानों को मोटे अनाज उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करे। यह कदम न केवल व्यावहारिक साबित होगा, बल्कि न्यायोचित भी होगा, क्योकि मोटे अनाजों का बाजार मूल्य घोषित एमएसपी से काफी कम रहता है। छोटे किसान बाजार व्यवस्था से काफी परेशान हैं और गरीबी से जूझ रहे हैं।भारत सरकार खरीदे गए अनाज को पीडीएस, मिड-डे-मील, आंगनबाड़ी जैसी योजनाओं के सहारे खपा सकती है। इसके अलावा, भारत सरकार जरूरत पडऩे पर खरीदे गए बाजरे का उपयोग देश में पशु आहार के रूप में भी कर सकती है। यह कुपोषण और गरीबी को दूर करने की
पहल साबित हो सकती है।इस बीच उल्लेखनीय है कि मोटे अनाज की खपत के स्वास्थ्य और पोषण संबंधी लाभों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए प्रत्येक मंत्रालय, मिशन और दूतावासों के तहत एक विस्तृत कार्य योजना तैयार की गई है। इन कार्यक्रमों में देश में उच्चतम स्तर पर सार्वजनिक और राजनीतिक प्रतिनिधियों को शामिल करते
हुए मोटे अनाजों का देशव्यापी प्रचार शामिल है। भारत सरकार का उद्देश्य विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से समाज के सबसे निचले तबके तक मोटे अनाज को पहुंचाना है, जो देश के मोटे अनाजों का प्रमुख उत्पादक है। भारत में लाखों छोटे और सीमांत किसान मोटे अनाज जैसे ज्वार, रागी, जौ, कागनी और कुटकी का उत्पादन कर रहे हैं।

सामान्यत : मोटे अनाजों का उत्पादन संसाधन रहित छोटे और सीमांत किसान करते हैं। अन्य प्रचलित अनाजों जैसे गेहूं और धान की तुलना में मोटे अनाज को अधिक पोषक माना जाता है, क्योंकि येे खनिज, जिंक, आयरन और कैल्शियम, विटामिन और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होते हैं। वास्तव में मोटे अनाज पोषण और सूक्ष्म पोषक तत्वों का खजाना हैं। हम सब को मिल कर कुपोषण से लडऩे के लिए इसे नियमित आहार का हिस्सा बनाना होगा, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में कुपोषण और मधुमेह जैसी स्वास्थ्य समस्याओं से निपटा जा सके ।राष्ट्रीय मिलेट वर्ष-2018 से भारत सरकार मोटे अनाजों के स्वास्थ्य लाभों के बारे में उपभोक्ताओं को जानकारी दे रही है। नए-नए उत्पाद बनाने के लिए उद्यमियों को प्रोत्साहित कर रही है और प्रचार प्रसार कर देश में मोटे अनाज की खपत को
बढ़ाने के लिए प्रयास कर रही है। 2018 से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत 'मोटे अनाज पर उप मिशन को
शामिल किया गया है। कई राज्यों में पोषण मिशन अभियान शुरू किया गया है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के
प्रयासों से तकरीबन 200 स्टार्टअप और 400 उद्यमी मोटा अनाज प्रसंस्करण और मोटा अनाज आधारित व्यवसाय
के लिए प्रेरित हुए हैं। मोटे अनाज की 15 फसलों को न्यूट्री -सीरियल्स की श्रेणी में रखने का निर्णय किया गया है।
सरकार के प्रयास अपनी जगह सही हैं, लेकिन ये प्रयास तभी सफल होंगे, जब मोटे अनाज की उचित मूल्य पर सुनिश्चित सरकारी खरीद करने की व्यवस्था की जाए।बजट में मोटे अनाज को श्री अन्न के नाम से संबोधित करके केंद्रीय वित्त मंत्री ने मोटे अनाज की तरफ सभी का ध्यान खींचा। भारत सरकार ने देश में मोटा अनाज के उत्पादन
और खपत को बढ़ावा देने के लिए अभियान शुरू किया है। इसके स्वास्थ्य और पोषण संबंधी फायदों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए प्रत्येक मंत्रालय, मिशन और दूतावासों के तहत एक विस्तृत कार्य योजना तैयार की गई है। इन कार्यक्रमों में उच्च स्तर पर सार्वजनिक और राजनीतिक प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए मोटे अनाजों
पर देशव्यापी प्रचार शामिल है। भारत सरकार का उद्देश्य विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से समाज के सबसे निचले तबके तक पहुंचना है जो देश के कोने-कोने में मोटे अनाजों का प्रमुख उत्पादक है।देश में 1.7 करोड़ टन मोटे अनाज का उत्पादन करीब 13 लाख हेक्टेयर में लाखों छोटे और सीमांत किसानों द्वारा किया जा रहा है। ज्वार, रागी, जौ,
कागनी और कुटकी के साथ बाजरे का मोटे अनाजों में लगभग 60 फीसदी योगदान है। सामान्यतः मोटे अनाजों का
उत्पादन संसाधन रहित छोटे और सीमांत किसान करते हैं। अन्य प्रचलित अनाजों जैसे गेहूं और धान की तुलना में मोटे अनाज को अधिक पोषक माना जाता है क्योंकि ये खनिज, जिंक, आयरन और कैल्शियम, विटामिन और
एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होते हैं। वास्तव में मोटा अनाज पोषण और सूक्ष्म पोषक तत्वों का खजाना है। कुपोषण से
लड़ने के लिए हमें इसे नियमित आहार का हिस्सा बनाना होगा ताकि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में कुपोषण और मधुमेह जैसी स्वास्थ्य समस्याओं से निपटा जा सके।मोटे अनाजों के उत्पादन में बढ़ोतरी तभी संभव है जब इनकी
बाजार में मांग बढ़े और किसानों को इसे उगाने कि लिए प्रेरित किया जाए। जब तक मोटा अनाज आधारित आहार
की बाजार में मांग नहीं बढ़ती तब तक केंद्र सरकार को इसके उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करने के तहत न्यूनतम
समर्थन मूल्य (एमएसपी) सुनिश्चित करने और उत्पादकों से उनकी उपज को एमएसपी पर खरीदने की व्यवस्था
करनी पड़ेगी। भारत मोटे अनाज उत्पादन का वैश्विक केंद्र है। देश के विभिन्न राज्यों में 1.7 करोड़ टन मोटे अनाज का उत्पादन होता है जो एशिया के कुल उत्पादन का 80 फीसदी और दुनिया के कुल उत्पादन का 20 फीसदी है।
मोटे अनाज का वैश्विक उत्पादन 8.6 करोड़ टन सालाना है। भारत अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष 2023 मना रहा
है। यही सही समय है कि भारत सरकार मोटे अनाजों के प्रमुख अनाज बाजरा, ज्वार और रागी का एमएसपी वैध
घोषित करे और 2023 में इन प्रमुख मोटे अनाजों के कुल उत्पादन का एक तिहाई सरकारी खरीद कर छोटे और
मझोले किसानों को इसके उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करे। यह कदम न केवल व्यावहारिक बल्कि जायज भी है
क्योंकि मोटे अनाजों का बाजार मूल्य हमेशा घोषित एमएसपी से काफी कम रहा है। छोटे किसान बाजार व्यवस्था
से काफी परेशान हैं और गरीबी से जूझ रहे हैं। 2,250 रुपये प्रति क्विंटल की मौजूदा एमएसपी दर पर केंद्र सरकार
द्वारा 50 लाख टन या कुल उत्पादन का लगभग एक तिहाई हिस्सा खरीदने पर 11,250 करोड़ रुपये खर्चा आएगा।
यह फैसला एक बड़ा नीतिगत फैसला होगा जो देश की राजनीति में किसानों की अहम् भूमिका को निर्णायक दिशा
देगा।भारत सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), मिड-डे मील, आंगनबाड़ी, मनरेगा योजनाओं के तहत
खरीदे गए मोटे अनाज का निस्तारण और संगठित कर सकती है। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर खरीदे गए बाजरे
का उपयोग पशु आहार के रूप में भी कर सकती है। इस तरह, सरकार मोटे अनाज खरीद की लागत को वहन कर
सकती है। यह एक तीर से दो शिकार यानी कुपोषण और गरीबी को दूर करने की पहल साबित हो सकती है। अब धीरे-धीरे गैर-संक्रामक बीमारियों के बढ़ते खतरे को देखते हुए आहार में संतुलन की ओर लोगों का ध्यान गया है।
दरअसल मोटे अनाज से शरीर को पर्याप्त पोषण मिल जाता था। गेहूं और धान से वह पोषण नहीं मिल पाता है।इसलिए यह अत्यावश्यक है कि खानपान में अनाजों का संतुलन बनाया जाए। थाली में सभी अनाजों की संतुलित मात्रा पहुंचाने के लिए यह भी जरूरी है कि खेती में भी संतुलन आए। सरकार ने जिस तरह से अन्य नकदी फसलों को
बढ़ावा देने के कदम उठाए, उसी तरह के कदम मोटे अनाजों के संदर्भ में भी उठाए जाने चाहिए। जब किसानों को यह भरोसा होगा कि उनकी उपज का सही दाम उन्हें मिल सकता है, तो निःसंदेह वे इनकी खेती के लिए भी
प्रोत्साहित होंगे। सरकारी खरीद में इनकी हिस्सेदारी बढ़ानी होगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर इनकी खरीद सुनिश्चित करनी होगी। विज्ञानियों को भी इस दिशा में शोध करते हुए नई एवं बेहतर किस्मों को विकसित करने की दिशा में प्रयास करना होगा। सभी का सम्मिलित प्रयास ही इच्छित परिणाम तक पहुंचाएगा। मगर ये प्रयास तभी सफल होंगे जब मोटे अनाज का रकबा और उत्पादन बढ़ाने के लिए उचित मूल्य और सुनिश्चित खरीद की व्यवस्था की जाए। हर थाली तक संतुलित तरीके से पहुंचाना होगा पोषण।

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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