‘हिमालय दिवस की अनन्त शुभकामनाएं’..💐💐
आज 9 सितम्बर हिमालय दिवस मनाने का मुख्य उद्देश्य यह है कि, एक ऐसा दिन हो जो हिमालय पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण का संदेश फैलाने के लिए पूरे राज्य में मनाया जाए, क्योंकि आए दिन हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक जलश्रोत सूख रहे हैं, मौसम चक्र में निरंतर बदलाव हो रहा है, तमाम वनस्पतियां विलुप्त होने की कगार पर हैं, पारिस्थितिकी में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, भूस्खलन और बाढ़ की घटनाओं में भी तेजी से इजाफा हो रहा है। यह सब बातें इसका संकेत है कि हिमालय संकट में है। आज हालत इस क़दर है कि उत्तराखंड से लेकर अरुणाचल तक तकरीबन एक हजार से अधिक बांध हिमालय क्षेत्रों में बन रहे हैं। पर्यटन और उद्योग के नाम पर अनियोजित विकास हो रहा है। बड़े बांध तो चुनौती बने ही हैं, हिमालय की जैव विविधता पर भी खतरे का संकट मंडरा रहा है। इन बदलावों से सिर्फ प्रकृति ही नहीं बल्कि समाज भी प्रभावित हो रहा है। अतः नि:संदेह हिमालय खतरे में है। हिमालय को बचाया जाना भी जरूरी है, लेकिन अहम सवाल यह है कि यह बचेगा कैसे? कौन बचाएगा इसे ? इसी के लिए वर्ष 2010 में हिमालय बचाने के लिए कुछ पर्यावरणविदों ने एक पहल के तौर पर इसकी शुरुआत की थी।
हिमालय दिवस की शुरुआत 2010 में एक पहल के रूप में शुरू हुआ था, इसकी शुरुआत नामांकित पर्यावरणविदों और कार्यकर्ताओं के एक समूह ने सुंदर लाल बहुगुणा, अनिल जोशी और राधा बेहान आदि थे, हिमालय दिवस के द्वारा हिमालय के लिए सतत विकास और पारिस्थितिक स्थिरता और हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाये रखने के लिए किया गया था। हिमालय दिवस की शुरुआत आधिकारिक तौर पर 9 सितंबर 2014 उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री श्री हरीश रावत ने की थी।
‘हिमनद : मानव जीवन का आधार’ पुस्तक के लेखक डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी कहते हैं कि- “हमें हिमालय को समझना पड़ेगा, हिमालय के बगैर भारतीय उपमहाद्वीप की कल्पना करना संभव नहीं है। हिमालय का समाजशास्त्रीय और वैज्ञानिक दोनों रूपों में अध्ययन की आवश्यकता है। ये भारत का मुकुट और प्रहरी है।अगर हिमनद बचे रहे तो हमारा अस्तित्व भी बचा रहेगा।”
‘हिमालय दिवस’ पुस्तक के लेखक डॉ. अनिल जोशी जी एक बातचीत में कहते हैं कि- हिमालयी मुद्दों और संरक्षण को लेकर सरकारें कभी गंभीर नहीं रहीं। अमेजन के जंगल में आग लगती है तो शोर उठता है कि दुनिया को 20 प्रतिशत आक्सीजन देने वाले जंगल जल रहे हैं। हिमालय जो हर साल करोड़ों लोगों को बाढ़ से बचाते हैं, आक्सीजन देते हैं वहां जंगलों में आग लगती है तो कोई सरकार कुछ नहीं कहती। मुसीबत यही है कि हिमालय के योगदान को कभी किसी ने स्वीकारा ही नहीं। हमें उपभोग, उपयोग और संरक्षण के आपसी संबंध को समझना होगा। यह समझ और आदत विकसित करनी होगी कि उपभोग कितना किया जाए, उपयोग का सर्वश्रेष्ठ तरीका क्या हो और संरक्षण किस तरह से और कहां किया जाए। पर्यावरणीय सेवाओं के आकलन से भी साफ हुआ है कि हिमालय की ओर से दी जा रही पर्यावरणीय सेवाओं के 10 प्रतिशत का उपयोग ही राज्य कर रहा है। पानी से लेकर अन्य सेवाओं के 90 प्रतिशत का उपयोग अन्य लोग करते हैं। मैदानी क्षेत्र के लोगों को भी आगे आना चाहिए।
आखिर भारत की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा इसी हिमालय की कृपा से जिंदा है। हमें यह समझना होगा कि दुनिया में हमी पहाड़ नहीं हैं। यूरोप मेें सड़क बनतीं हैं तो पहले इकोलॉजी के हिसाब से रोड मैप बनता है। चीन जिसकी हम इतनी सारी बात करते हैं, वह तक किसी विकास योजना को अंजाम देते समय पारिस्थितिकी के मानक सामने रखता है। दरअसल हमारे यहां दो छोर हैं। एक छोर पर बैठी सरकार विकास की बात करती है तो पारिस्थितिकी तंत्र की उपेक्षा कर देती है। संरक्षण की बात करने वालों को तुरंत विकास विरोधी करार दिया जाता है। सरकारों को समझना चाहिए कि सतत विकास तभी होगा, जब मूल में संरक्षण की भावना हो। दूसरा छोर संरक्षण की बात करने वालों का हैं, जिन्हें समझाना होगा कि संरक्षण के केंद्र में मानव है।आइए अपने स्तर पर छोटे-छोटे कदम उठाकर हिमालय के संरक्षण का प्रण करें कि जब भी आप हिमालय की वादियों में घूमने आएं तो गन्दगी न फैलाएं और हिमालय की संपदा को नुकसान न पहुंचाए।