उत्तराखंड में जंगल की आग बनी बड़ी चुनौती
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में मार्च तकरीबन सूखा गुजरने की कगार पर है। करीब छह जिलों में एक बूंद भी बारिश नहीं हुई है।
जबकि, अन्य में भी न के बराबर बारिश हुई। इस बीच तापमान में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। करीब तीन सप्ताह से ज्यादातर क्षेत्रों में पारा सामान्य से चार से छह डिग्री सेल्सियस अधिक बना हुआ है।उत्तराखंड में फरवरी से ही उछाल भरते पारे ने आमजन की मुसीबत तो बढ़ा ही दी है, वन संपदा के लिए भी बड़ा खतरा पैदा हो गया है। तापमान बढ़ने के साथ ही राज्य में जंगल धधकने लगे हैं। इससे वन विभाग के अधिकारियों की पेशानी पर बल पड़े हैं।यद्यपि, वन विभाग की टीमें अग्नि दुर्घटनाओं पर नियंत्रण के लिए जुटी हैं, लेकिन चिंता कम होने का नाम नहीं ले रही। यह इसलिए भी बढ़ गई है,क्योंकि मौसम विभाग ने अगले कुछ दिन मौसम शुष्क रहने की संभावना जताई है। यानी, पारा और उछाल भरेगा। ऐसे में सबकी नजरें आसमान पर गड़ी हैं कि कब इंद्रदेव मेहरबान हों और जंगलों में आग पर नियंत्रण हो।यह किसी से छिपा नहीं है कि 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड में हर साल ही आग से वन संपदा को भारी क्षति पहुंचती है। पहले तो फायर सीजन यानी 15 फरवरी से मानसून आने की अवधि तक ही जंगल अधिक सुलगते थे, लेकिन अब यह अवधारणा टूटी है।
वर्ष 2020 में सर्दियों में ही जंगल धधक उठे थे। इसे देखते हुए तब सरकार ने पूरे वर्ष को फायर सीजन के रूप में घोषित कर दिया था। पिछले वर्ष सर्दियों में लगातार बारिश व बर्फबारी होने के कारण स्थिति नियंत्रण में रही, लेकिन अब जबकि मौसम के शुष्क होने के साथ ही पारा उछाल भरने लगा है तो इसी अनुपात में जंगल भी सुलगने लगे हैं।इस बार 15 फरवरी से अब तक जंगलों में आग की 154 घटनाएं हो चुकी हैं। जिनमें 206 हेक्टेयर वन क्षेत्र को क्षति पहुंची है। अब तो जंगल की आग आबादी के नजदीक तक पहुंचने लगी है। बीते दिवस ही आग नैनीताल जिले में आबादी के पास तक पहुंच गई थी, जिसे बमुश्किल काबू पाया गया।अगले कुछ दिन मौसम के शुष्क रहने के पूर्वानुमान के मद्देनजर वन विभाग की चिंता अधिक बढ़ गई है। यद्यपि, विभाग ने आग की दृष्टि से संवेदनशील स्थल चिह्नित किए हैं, लेकिन जिस तरह से पारा उछाल भर रहा है, उससे चुनौती अधिक बढ़ गई है।पेड़-पौधे और वन्य जीव अगर वोटर होते तो राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में उत्तराखंड में हर साल धधकने वाली वनाग्नि की समस्या के समाधान के लिए जरूर कोई न कोई वादा होता। वनों में लगने वाली आग को रोकने की रणनीति या कार्यक्रम सीधे-सीधे मतदाताओं को नहीं रिझाते, इसलिए राजनीतिक दलों का ध्यान फायर सीजन में ही चुनाव होने के बावजूद इस पर नहीं गया। 71 प्रतिशत वन भूभाग वाले प्रदेश के राजनीतिक दल चुनाव में व्यस्त हैं और जिम्मेदार विभाग गरजते-बरसते मौसम के भक्त हुए जा रहे हैं। इस वर्ष जनवरी-फरवरी माह में उत्तराखंड में करीब 50 प्रतिशत अधिक बारिश हुई है। ऊंची चोटियों पर बर्फ जमी है, पहाड़ों की जमीन में नमी समाई है और चाल-खाल में भी आगे तक पानी रहने वाला है।राज्य में हर साल औसतन 1,978 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग से सुलगता है। इससे वनस्पति एवं जैविक संपदा का नुकसान तो होता ही है, हिमालयी क्षेत्र का पर्यावरण भी बुरी तरह प्रभावित होता है। पिछले 12 वर्षों में उत्तराखंड के जंगलों में आग की 13,574 घटनाएं हुई हैं, फिर भी आग बुझाने की विभागीय तकनीकी पारंपरिक ही है। पिछले तीन-चार वर्षों से वनाग्नि की सूचना प्रसार के लिए ड्रोन का उपयोग किया जाने लगा है। आवश्यकता तो नई
तकनीकी के इस्तेमाल के साथ जवाबदेह व्यवस्था विकसित करने की है। इसी कमी के कारण घटिया इरादों के लिए जंगलों में आग लगाने वालों को दंडित किए जाने के उदाहरण कम मिलते हैं और वन अपराधी निडर हो कर यह सब करते रहते हैं।यह यहां की प्रकृति की देन है कि जंगलों में लगने वाली आग सतह पर ही फैलती है जिससे पेड़ों को कम नुकसान होता है, लेकिन छोटे पौधों एवं बहुमूल्य वनस्पतियों
को इससे काफी हानि होती है। यह जंगलों में पनपने वाली जैवविविधता के लिए भी बड़ा खतरा है। जंगल में आग के दो कारण हैं। पहला मानवजनित तो दूसरा प्राकृतिक। मानवजनित कारण भी दो तरह के हैं। छोटी-छोटी लापरवाही वन संपदा के लिए घातक हो जाती है। बीड़ी-सिगरेट या घरों के आस-पास झाड़ियों में लगाई गई आग को बहुत सामान्य तौर पर लेते हैं और यही आग अक्सर पूरे जंगल को सुलगा देती है। मानवजनित कारणों में कुछ असामाजिक तत्व अपने काले कारनामों को अंजाम देने के लिए इरआदतन आग लगा देते हैं। कभी जंगली जानवरों के शिकार के लिए तो कभी आग के बाद उगने वाली हरी-घनी घास के लिए यह खतरनाक खेल खेलते हैं। कई बार वन विभाग के ही काले भेड़िए अपने काले कारनामों पर पर्दा डालने के लिए भी रक्षक से भक्षक बन जाते हैं।इस आग से हवाई पौधारोपण एवं अवैध कटान पर भी पर्दा पड़ जाता है। यह स्पष्ट है कि वनों की
आग का मुख्य कारण मानव ही है।कुछ मामलों में प्राकृतिक रूप से भी जंगलों में आग लग जाती है।जानवरों की आवाजाही से ऊंचे पहाड़ों से पत्थर लुढ़कते हैं, जो कई बार टकराहट में चिंगारी छोड़ जाते हैं। यह चिंगारी जब सूखी घास एवं पत्तियों के संपर्क में आती है तो जंगल में आग की घातक कहानी लिख जाती है।
जंगलों की आग के लिए काफी हद तक चीड़ के पेड़ भी जिम्मेदार हैं। इनकी सूखी पत्तियां गर्मियों में जंगलों में आग फैलाने में पेट्रोल सरीखा काम करती हैं। साथ ही ये बारिश के पानी को जमीन में रिसने से रोकती हैं। चीड़
के जंगलों में कोई और पौध नहीं पनप सकती है। चीड़ की यह असहिष्णुता एवं विस्तारवादी प्रवृत्ति उत्तराखंड के
वनों के लिए बड़ी चुनौती है। चीड़ के जंगलों को सुनियोजित तरीके से उपयोगी पेड़ों के जंगल में परिवर्तित किए जाने की आवश्यकता है, पर हो इसके उलटा रहा है। चीड़ के जंगल लगातार विस्तार पा रहे हैं। जिन क्षेत्रों में चीड़ दिखाई नहीं देता था, ये आज वहां तक विस्तार पा चुके हैं।जंगल की आग पर काबू पाने के तौर-तरीकों में नई तकनीकी का प्रयोग जिस गति से होना चाहिए था, वह नहीं हो पा रहा है। ड्रोन का प्रयोग केवल सूचना के त्वरित प्रसार तक ही सीमित है। लीफ ब्लोअर (सूखे पत्रों को हवा से साफ करने वाली मशीन) का उपयोग अभी तक आम नहीं हो पाया है। कृत्रिम बारिश अभी तक सोच के स्तर तक ही है। कुल मिलाकर अंग्रेजों के जमाने से अब तक अगर आग बुझाने का कोई कारगर उपाय दिखता है तो वह है झांपा। झांपा पेड़ों के हरे पत्तों से युक्त
टहनियों से बनाया गया बड़ा झाड़ू ही होता है, जिससे दूर से ही खड़े होकर आग बुझाई जाती है। प्राकृतिक आपदा भी जंगलों को जख्म दे जाते हैं। हालांकि, वन विभाग के आंकलन के अनुसार विकास कार्यों में बेहद मामूली वन क्षेत्र प्रभावित होता है। पर्वतीय क्षेत्रों में वृहद स्तर का भूमि कटाव कम किया
जा रहा है। साथ ही पर्यावरणरक्षी तकनीकी का भी पूर्ण प्रयोग किया जा रहा है, किंतु इस ऑल वेदर रोड परियोजना के अंतर्गत इस तरह की पर्यावरण रक्षक तकनीकों का प्रयोग किया जा रहा है, यह ज्ञात नहीं है।यह भी ज्ञात है कि पेड़ काटने के बाद भविष्य में जितने पेड़ काटे जाएंगे उससे कई गुना अधिक पेड़ अन्य क्षेत्रों में रोपित भी किए जाएंगे। उत्तराखंड के पहाड़ों में आग लगने की घटनाएं हर साल
सुर्खियां बटोरती हैं। इससे जहां बड़ी संख्या में पेड़ों, जीव जंतुओं और पर्यावरण को नुकसान पहुंचता
है, वहीं वायु प्रदूषण की समस्या भी बढ़ जाती है। हाल के वर्षों में जंगल में आग लगने की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है अंग्रेजों ने गांववालों को जंगल पर हक और हुकूक दिए थे। जरूरत पड़ने पर अंग्रेज गांव वालों को एक-दो पेड़ दे दिया करते थे। जब तक यह नियम था तब तक लोगों में
यह भावना थी कि जंगल में आग लगी तो वे बुझाएंगे। इसलिए उस जमाने में आग लगने की
घटनाएं कम होती थीं।यह एक ज्ञात तथ्य है किंतु किसी स्थान की पारिस्थितिकी एवं उसमें
विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों, कीट पतंगों एवं सूक्ष्म जीवाणुओं का एसोसिएशन जो इकोलॉजी बनाता है, उसे बनने में हजारों वर्ष लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप किसी स्थान से निर्माण हेतु सौ पेड़ काटते हैं और किसी दूसरे स्थान पर पांच सौ पेड़ भी लगा
दें तो भी आप उस नए स्थान की पारिस्थितिकी उन सौ पेड़ वाले स्थान की तरह नहीं बना सकते।सर्वप्रथम नए स्थान पर लगाए पेड़ों को बड़े होने में समय लगेगा, उनके साथ सूक्ष्म
जीवाणु एवं जंगली जानवरों का तालमेल बनने में समय लगेगा। नए पेड़ उस स्थान की मिट्टी व जल को संरक्षित करने में भी समय लेंगे लेकिन क्या ये पेड़ उस दूसरे स्थान पर उस तरह की प्राकृतिक पारिस्थितिकी बना पाएंगे? यह लाख टके का सवाल है। सौ पेड़ों को काटने में सौ
मिनट भी नहीं लग रहे हैं किंतु उन सौ पेड़ों ने जो पारिस्थितिकी बनाई है, उसको बनाने में
हजारों वर्ष लगे होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा कि जंगल की जितनी भी जमीन
है, सब सरकारी मानी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से वन अधिनियम 1980 के तहत सबको
जंगल मान लिया गया। किसी के पास निजी तौर पर भी दस से ज्यादा पेड़ हैं तो वह भी जंगल
मान लिया गया। एक प्रकार से हमारी गलत नीतियों के कारण जंगलों के प्रति स्थानीय लोगों का
लगाव कम हो गया। हम अगर लोगों में जिम्मेदारी का भाव लाना चाहते हैं तो उन्हें जंगल पर
अधिकार भी देने पड़ेंगे।केवल वन विभाग आग लगने की घटनाओं को रोक नहीं पाएगा। पेड़ों की
रक्षा के लिए जब से नियम बनने लगे तब से पेड़ों की रक्षा पर उलटा असर पड़ने लगा। जंगल
को संरक्षित करने के लिए जो नियम बने उनमें यह कहीं नहीं बताया गया कि जंगल को बचाने
की जिम्मेदारी किसकी है। जंगल बचाने हैं तो लोगों को उससे जोड़ना होगा। अगर किसी व्यक्ति
को एक मकान बनाने की जरूरत है तो वह जंगल से लकड़ी नहीं ले सकता। आदमी बेघर मरा
जा रहा है और आप जंगल के नाम पर खाली पड़ी जमीन का एक छोटा टुकड़ा भी उसे नहीं दे
सकते। हमारे नियम एकतरफा हो जाते हैं। जंगल बचाने के लिए स्थानीय लोगों को नीतियों में
शामिल करना जरूरी है।अतः एक सुनियोजित एवं सामंजस्य पूर्ण विकास एवं सोच की नितांत
आवश्यकता है। मौसम विभाग के अनुसार, तापमान में और वृद्धि हो सकती है। साथ ही मध्य
हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर पिघलने और हिमस्खलन की चेतावनी जारी की गई है।पिछले तीन
सप्ताह से मैदानी क्षेत्रों में पारा सामान्य से पांच-छह, जबकि पहाड़ी इलाकों में दो से चार डिग्री
सेल्सियस तक अधिक बना हुआ है। मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक के अनुसार, प्रदेश में
फिलहाल मौसम शुष्क रहेगा।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।