अतीत बन गई पहाड़ की उरख्याली व गंज्याळी – – डॉ. दीपक सिंह कुंवर का खास लेख

Team PahadRaftar

अतीत बन गई पहाड़ की उरख्याली व गंज्याळी

अतुल गुसाँई जाखी जी कहते हैं कि—
गंज्याळी नचदी छै बल कबी
उरख्याली हैंसदी छै बल कबी
सुप्फा साज सुणाद छौ बल कबी
छफिरो गीत लगांद छौ बल कबी
नाज दनकुदो छौ बल कबी

पहाड़ की धरोहर के रूप में उरख्याली और गंज्याळी को समृद्धता का प्रतीक माना जाता है। पलायन व बदलते रहन-सहन, सुख-सुविधाओं की चाह और जीवन की आपाधापी ने खलिहानों से उरख्याली को लुप्त कर दिया है। गाँवों में वर्ष 2000 के बाद बने मकानों के आँगन में शायद ही किसी ने ओखल/उरख्याली बनाई हो। भले ही आज लोग गाँवों से पलायन करते जा रहे हैं, लेकिन इस परंपरा की यादें आज भी दिल को झकझोर देती है। कारण कुछ भी हो मगर पुरातन कहे जाने वाले उस दौर में कुछ तो बात थी, जिसका वापस लौटना अब संभव नहीं रहा।
उस दौर में उरख्याली महिलाओं के मिलन, आपसी बातचीत, मन की बातें, किसी की चुगली व सास की बड़बड़ाहट का गवाह होती थी। उरख्याली में धान को गंज्याळी से कूटने की ध्वनि के साथ-साथ गहनों की छणमण और चूड़ियों की छड़मडाहट एक अलग प्रकार की समां बांधती थी। साथ ही एक नहीं दो-दो गंज्याळी से कूटने की लय अद्भुत होती थी, जिस कारण से उरख्याली ने कई गढ़वाली-कुमाऊँनी लोकगीतों को वर्षों तक जिंदा रखा।

ऐसा ही पंयारी खर्कियों का एक लोकगीत उस दौर में अक्सर गाया जाता था—
गंज्याळी कु गांज
अया छाला ऐली बांध
रैली द् यौलु बांज
भाना ओ रँगीली भाना…..
लेकिन आज ये गीत तो पीछे छुट ही गए हैं, लेकिन इनके साथ-साथ उरख्याली और गंज्याळी भी पीछे छुट गए हैं। इसी प्रकार एक चौफला गीत जो उस दौर में लड़कियों के ससुराल में कष्टप्रद जीवन का स्मरण कराता है—
धार मा उरख्याली ब्वे
चौ डाण्डों बथौं चा ब्वे
बुरयालु झंगोरु ब्वे
कूटेन्दु बी नी चा ब्वे
उनी ख़ैरें गंज्याळी ब्वे उठेन्दी बी नी चा ब्वे
उनी टुटयूं चा सुप्फू ब्वे फटकेंदु बी नी चा ब्वे

 

उरख्याली में धान व अन्य अनाजों को कूटने में महिलाएँ व पुरूष दोनों ही परिपूर्ण होते थे, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कुछ चीजों में पुरुष महिलाओं के एवज़ में कमतर होता था जैसे– धान का उरख्याली से बाहर छलकने पर महिलाएं पैरों के सहारे धान को उरख्याली में डालती है और धान कूटते समय महिलाओं के मुहँ से सु-सु-सु-पा की आवाज का आना साथ ही महिलाओं द्वारा चावल व भूसे को सुप्फे से फेंटने में।
जब दो औरतें बारी-बारी से एक साथ उरख्याली में धान कूटती है तो इस प्रक्रिया को दोस्सारी या द्विमुखडी या रोड़ी कहते हैं।
एक और बात पुराने समय में पूरे गाँव की एक सँयुक्त छत के नीचे कई सारी उरख्याली हुआ करती थी, जब 08 बाई 06 के इन कमरों में एक से अधिक उरख्याली या ओखली हुआ करती थी तो ऐसे कमरों को ओखलसारी कहा करते थे।

संस्मरण—

मुझे आज भी याद है अपनी माँ की बातें, जब हम तीनों भाई-बहिन अलग-अलग स्कूलों से कई किमी0 पैदल चलकर घर पहुँचते थे तो माँ ने अपने जंगल या खेत जाने से पहले ही हम तीनों को अलग-अलग काम सौंपे होते थे कि एक धान कूटेगा और एक रात के लिए धारे से पानी लेगा तथा बहिन सौल्टी पर खेतों से घास लेगी। पानी भरने वाले अर्थात मुझे कभी-कभी खेतों में लकड़ी के कटगल/ढ़ेर से लकड़ी लेने का काम भी दिया होता था, लेकिन घर का सबसे छोटा और कामचोर होने के कारण मेरे हिस्से के इस काम को भी मेरे बड़े भाई को ही करना पड़ता था और बहिन को घास लेने के बाद गायों को अंदर गोशाला में बाँधने की जिम्मेदारी भी दी गई होती थी। इन सब कामों में धान को कूटना सबसे कठिन काम होता था, क्योंकि इसे कूटने में हाथों पर छाले भी लग जाते थे, लेकिन मेरे बड़े भाई इस काम में बहुत माहिर थे।
अतः उस दौर में लड़का-लड़कियां दोनों ही धान कूटने में निपुण होते थे, लेकिन आज की नई पीढ़ी के बच्चे इस विधा से अनजान होते जा रहे हैं।
कुछ वर्ष बाद बड़े भाई का इंटरमीडिएट में प्रवेश होना और मेरी ज़िंदगी में उरख्याली और गंज्याळी प्रवेश होना उस दौर का एक स्मरणीय पल रहा था। मानों मेरी जिंदगी ने एक बार करवट बदल ली हो और धान कूटने की बारी मुझ जैसे कामचोर के हिस्से में आ गई, क्योंकि बड़े भाई का स्कूल घर से बहुत दूर होता था, जहाँ से उन्हें घर आते-आते रात हो जाती थी, लेकिन इस बीच बहुत से ऐसे दौर आए जब मैं अपना काम अर्थात धान कूटने की बारी को बखूबी से नहीं निभा पाया, जिस कारण बड़े भाई को सुबह स्कूल जाने से पहले धान कूटना पड़ता था।
मुझे आज भी याद है उस समय हमारे यहाँ पर 9 परिवारों की एक ही ओखली होती थी, जो आज भी है। इसलिए उस दौर में धान को परिवार के सदस्य बारी-बारी से कूटते थे, पर मैं धान कूटने की बात को आज भी इसलिए नहीं भूला हूँ, क्योंकि मुझे इस धान कूटने के लिए स्कूल से दौड़-दौड़ के आना होता था, कि कहीं कोई भाई-बहिन स्कूल से जल्दी न आ जाए, जिससे कि कोई और मुझसे पहले ओखली में धान डालकर न रख दें। अतः मैं स्कूल से आकर धान को ओखली में डालकर सुप्फे से ढककर रख देता था। तत्पश्चात खाना खाने की क्रिया व कपड़े बदलने की क्रिया कर धारे से पानी भरकर अंत में धान कूटने जाता था और यदि कभी कोई जल्दी स्कूल से आ गया होता तो उस दिन मैं धान कूटने से वंचित रह जाता और फिर भाई को सुबह के समय मेरे हिस्से का धान कूटना पड़ता था।

अब दुःख इस बात का है कि आने वाले दिनों ओखली को सिर्फ हिंदी व्याकरण की किताबों में ही (ओ से ओखली) देखा जायेगा गाँव के खलियानों में नहीं।

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