उत्तराखंड राज्य गठन के 24 वर्ष बाद भी पहाड़ से पलायन जारी
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य को बने हुए 24 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन राज्य के गांवों से पलायन एक बड़ी समस्या बना
हुआ है. विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस राज्य में आज भी सैकड़ों गांव वीरान होते जा रहे हैं.
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और बेहतर जीवन-स्तर की तलाश में लोग लगातार पहाड़ों से मैदान की ओर जा रहे हैं. हालांकि, राज्य सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से ले रही है और ग्रामीण विकास के कई कार्यक्रम भी चला रही है, लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है. उत्तराखंड सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है. पलायन के चलते कई जिले
प्रतिनिधित्व के खतरे तक पहुंच गए हैं. राज्य में साल 2007 में परिसीमन आयोग की सिफारिश पर 6 विधानसभाएं पहाड़ी जिलों से कम हो गई थीं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर ऐसे ही पलायन चलता रहा तो साल 2026 तक पहाड़ की कई विधानसभा सीटें कम हो सकती हैं. पहले पहाड़ों तक विकास न पहुंचना पलायन की वजह बना और अब पलायन की वजह से विकास पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रहा है. पहाड़ों पर लगातार कम हो रही जनसंख्या के कारण सरकारी योजनाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, जिस कारण पहाड़ों पर विधानसभाओं की संख्या भी कम हो रही है, जिससे यहां बजट का कम होना भी लाजमी है.साल 2007 से पहले प्रदेश में पहाड़ी विधानसभाओं का प्रतिनिधित्व विधानसभा सदन में 40 था, लेकिन साल 2007 के बाद विधानसभा में पहाड़ से आने वाले विधायकों की संख्या घटकर 36 रह गई. परिसीमन आयोग ने पहाड़ पर कम हो रही जनसंख्या के आधार पर सीटों को कम करने की
सिफारिश की थी, जिसकी उत्तराखंड के विधायकों ने विरोध करने की हिम्मत तक नहीं जुटाई. परिसीमन आयोग ने प्रदेश में 10 से 16 पहाड़ी विधानसभाओं को खत्म कर मैदानी जिलों में जोड़ने की तैयारी की थी, लेकिन आयोग के इस कदम का विरोध होने के बाद 6 सीटें पहाड़ी जिलों की कम कर दी गईं. पलायन आयोग की रिपोर्ट से यह साफ है कि वर्तमान में पौड़ी और अल्मोड़ा जिले में बेहद तेजी से पलायन हो रहा है. यही स्थिति राज्य के दूसरे जिलों की भी बनी हुई है. ऐसे में यह तय है कि 2026 में यदि परिसीमन
होता है तो पहाड़ की कई दूसरी सीटें भी कम हो जाएंगी. राज्य आंदोलनकारी बताते हैं कि यदि पहाड़ों की सीटें कम होती हैं तो अलग राज्य की अवधारणा ही खत्म हो जाएगी.परिसीमन के दौरान जहां नागालैंड, असम, अरुणाचल, मणिपुर और झारखंड में इसका विरोध कर परिसीमन को नहीं होने दिया गया.
वहीं,उत्तराखंड में राजनेता मौन रहे और इसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ी जिलों में परिसीमन के बाद सीटें कम हो गईं. पलायन के कारण पहाड़ों से लगातार जनसंख्या कम हो रही है, ऐसे में पहाड़ तक विकास कैसे पहुंचेगा? और अगर पहुंचेगा भी तो किसके लिए? यह बड़ा सवाल है. उत्तराखंड में पलायन के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार यहां की सरकारें और राजनेता रहे हैं, परिसीमन के दौरान जहां नागालैंड असम अरुणाचल मणिपुर और झारखंड में इसका विरोध कर परिसीमन को नहीं होने दिया गया वहीं उत्तराखंड में राजनेता
मौन रहे और इसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ी जिलों में परिसीमन के बाद सीटें कम हो गई। शर्मनाक बात
यह है कि पौड़ी जैसे जिले में भी 2 सीटों का परिसीमन के कारण कम कर दिया गया यह वह जिला है जहां से अधिकतर मुख्यमंत्री हुए हैं यही नहीं मौजूदा मुख्यमंत्री समेत देश के कई शीर्ष पदों पर इसी जिले के लोग मौजूद हैं। पहाड़ी जिलों के लिए मुश्किल इस बात की है कि विधानसभा में कम होने से पहाड़ों का बजट भी कम हो रहा है और प्रतिनिधित्व भी कम हुआ है। जबकि पहाड़ों में विकास के लिए मैदानी जिलों के
मुकाबले काफी ज्यादा बजट की जरूरत होती है। पहाड़ों की इस सबसे बड़ी समस्या को देखते हुए टीवी भारत ने पलायन के खिलाफ एक मुहिम शुरू की है.आ अब लौटें' मुहिम के जरिये उन गांवों की समस्याओं को सामने लाया जा रहा है जो अब पलायन के कारण खाली हो चुके हैं या खाली होने की कगार पर हैं. सरकार तक उन गांवों की समस्याओं का पहुंचाया जा रहा है. अबतक इस मुहिम को कई बॉलीवुड सितारों का भी साथ मिल चुका है, वहीं विदेश में रह रहे पहाड़ी लोग भी इस मुहिम के जरिये अपने गांव तक जुड़
रहे हैं. उत्तराखंड के लिए पलायन शब्द नया नहीं है, लेकिन राजनीतिक दल इस शब्द को हर 5 साल में नए रूप और नई कार्ययोजना के साथ जनता के सामने पेश जरूर कर देते हैं. साल 2017 में भाजपा ने भी पलायन पर कुछ ऐसे ही वादे अपने दृष्टिपत्र में किए थे, जिससे सरकार फिलहाल कोसों दूर नजर आती है. जाहिर है कि सरकार के लिए यह 5 साल अपने इन वादों को पूरा करने में कम ही साबित हुए हैं. उत्तराखंड में चुनाव से पहले पलायन पर चर्चा बेहद जरूरी है और ये भी जानने की जरूरत है कि पिछले 6 साल में
सरकार में पलायन को दूर करने के लिए कितने प्रयास सफल हुए. पहाड़ों में बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं भी पहाड़ से पलायन का बड़ा कारण थीं. लोगों को छोटी-छोटी दवा और इलाज के लिए घंटों सफर करना पड़ा था. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कोरोना से पहले प्रदेश में केवल 1200 आइसोलेशन बेड थे, जिनकी संख्या अब बढ़कर 27,186 पहुंच चुकी है. पहले केवल केवल जिला
चिकित्सालय में ही आइसीयू (इंटेंसिव केयर यूनिट) थे. अब प्रदेश में 1655 आइसीयू हैं. वेंटिलेटर की संख्या
भी 116 से बढ़कर 1016 हो गई है. वहीं, ऑक्सीजन सिलेंडर की संख्या 1193 से बढ़कर 22,420 और
ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर की संख्या 275 से बढ़कर 9838 पहुंच चुकी है. राज्य में पहले केवल एक ऑक्सीजन
जनरेशन प्लांट था, जिनकी संख्या आज 87 हो चुकी है.पलायन रोकने के लिए उत्तराखंड को एक नए
आर्थिक विकास के मॉडल की जरूरत है. जिसमें औद्योगिक विकास के साथ-साथ पहाड़ों पर बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना भी शामिल है. आयोग की रिपोर्ट मिलने के बाद सरकार ने पलायन की रोकथाम के लिए मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना लॉन्च की है. इसके अंतर्गत ग्राम्य विकास समेत विभिन्न विभागों की योजनाओं को लाया गया, ताकि गांवों में मूलभूत सुविधाएं जुटाने की रफ्तार तेज की जा सके.
उधर, राज्य सरकारें भी पहाड़ों पर वह सहूलियत पैदा नहीं कर पाई, जिससे उद्योगपति पहाड़ों का रुख करें. राज्य स्थापना के दौरान प्रदेश में केवल 46 बड़े उद्योग थे और 700 करोड़ रुपए के इन्वेस्टमेंट वाले लघु और सूक्ष्म उद्योगों की संख्या 14 हजार के करीब थी. कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार के दौरान इस दिशा में काफी अच्छा प्रयास हुए और औद्योगिक पैकेज की सहूलियत के साथ उद्योगों ने राज्य का रुख किया.सरकार की तरफ से कृषि सेक्टर में भी सब्सिडी से लेकर लोन की सहूलियत देने की कोशिश की गई.
होम स्टे से लेकर कृषि, ऊर्जा और दूसरे विभागों में स्वरोजगार के लिए लोगों को प्रेरित करने की भी
कोशिश हुई. हालांकि, यह कोशिशें धरातल पर कितनी हुई इसकी तस्दीक तो जनता ही कर सकती है.प्रदेश में तेजी से पलायन हो रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में गांव के गांव सूने हो रहे हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि अंतरराष्ट्रीय सीमा से जुड़े सीमांत गांवों के खाली होने से सीमांत प्रहरी की भूमिका निभाने के लिए स्थानीय नागरिक बहुत कम रह गए हैं। इससे सरकार को प्राकृतिक रूप से मिल रहा सुरक्षा कवच कमजोर हो रहा है।पलायन पर चिंता जताते हुए सरकार ने अगस्त 2017 में पलायन आयोग का गठन किया। एक वर्ष बाद
आयोग ने वर्ष 2018 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। इस रिपोर्ट में पलायन के कारणों का उल्लेख करते हुए बताया गया कि राज्य गठन के बाद 1702 गांव खाली हो गए हैं।पलायन जारी है। आयोग ने सरकार को पलायन रोकने के लिए सुझाव भी दिए। इनमें से चुनिंदा पर ही धीमी गति पर कदम आगे बढ़े हैं। इस ओर गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत महसूस हो रही है। उत्तराखंड में पलायन के प्रमुख कारणों में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, रोजगार के अवसरों का अभाव, और कठिन भौगोलिक स्थितियां शामिल
हैं. राज्य के कई दूर-दराज के गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं और बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की सुविधाएं भी नहीं हैं. रोजगार के अवसरों के अभाव में युवा वर्ग शहरों और अन्य राज्यों में नौकरी की तलाश में पलायन कर रहा है. पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, यदि इन बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं किया गया तो पहाड़ों में गांव खाली होने का सिलसिला जारी रहेगा. पलायन आयोग की 2022 की
रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में पलायन का प्रभाव गहराई से महसूस किया जा सकता है. रिपोर्ट के अनुसार, 307310 लोग राज्य से पलायन कर चुके हैं, जिनमें से 28531 लोग स्थायी रूप से राज्य छोड़ चुके हैं. इस आंकड़े से स्पष्ट है कि पहाड़ों में आज भी रहने का संकट गहराता जा रहा है.गांवों की रौनक लौटाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के क्षेत्र में सुधार की आवश्यकता है. सरकार का उद्देश्य है कि
ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे का विकास कर वहां रहने योग्य वातावरण बनाया जाए. इसके लिए विशेष योजनाएं बनाई गई हैं, जिनमें सरकारी नौकरियों के अवसरों को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाना, पर्यटन के लिए बेहतर सुविधाएं मुहैया कराना, और स्थानीय उत्पादों के विपणन को बढ़ावा देना शामिल है.विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राज्य सरकार गांवों में रोजगार के अवसर बढ़ाए और शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करे, तो पलायन को रोका जा सकता है. इसके अलावा, स्थानीय स्तर पर सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के माध्यम से युवाओं को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करना भी एक कारगर उपाय साबित हो सकता है.पलायन की चुनौती उत्तराखंड के विकास में एक बड़ी बाधा बनी हुई है.
राज्य स्थापना के 24 वर्षों बाद भी पलायन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतों की कमी से लोग अपने गांवों को छोड़ रहे हैं. हालांकि, सरकार इस मुद्दे को लेकर गंभीर है और कई योजनाओं पर काम कर रही है. यदि इन योजनाओं का सही तरीके से कार्यान्वयन किया जाए और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार तथा आधारभूत ढांचे का विकास किया जाए, तो उत्तराखंड के गांवों की रौनक लौट सकती है और पहाड़ों में बसावट को फिर से बढ़ावा मिल सकता है.
लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।