बुरांस से जंगल हुए लाल, शाहजहाँ की पत्नी मुमताज महल को भी बुरांस का फूल था बहुत पसंद – डॉ दीपक कुंवर की खास रपट

Team PahadRaftar

सदियों तक खिलता रहेगा ‘बुराँश’ चाहे कितना भी निष्ठुर हो ह्यूनाल…. डॉ०दीपक सिंह

पहाड़ पर सदियों से “ह्यूनाल” (ह्यून्द) आ रहा है
सदियों से बसंत में खिल रहा है बुराँस
कमाल यह है कि जहाँ सबसे ज्यादा पड़ता है ह्यूनाल
वहीं पर खिल उठते हैं सबसे ज्यादा बुराँस
यदि बचा रहा जंगल, बचे रहे पहाड़
तो सदियों तक खिलता रहेगा बुराँस
और यह बताते रहेगा बुराँस
कि कितना भी निष्ठुर हो ह्यूनाल
पर बुराँस को खिलने से रोक नहीं पायेगा ह्यूनाल

अगर आपने कभी उत्तराखंड के उन हिस्सों में जीवन के कुछ पल बिताएँ हैं, जहाँ बर्फ अपनी सफ़ेद चादर ओढ़े होती है तो सम्भव है कि आपने यह लोकगीत अवश्य सुना होगा।
डांड्यू खिलणा ह्वाला बुरंसी का फूल,
पाख्यू हैंसणी ह्वोली, फ्याेंली मुलमूल,
फुलारी फुलपाती लेकी, देल्यूं देल्यूं जाला
दगड्या भगयान थ्ड्या चौंफुला लगाला।
(अर्थात जंगलों में बुराँस का फूल खिल गया होगा, पहाड़ों पर फ्योंली का फूल हंस रहा होगा, फूल वाले अर्थात बच्चे फूल-पत्ती लेकर देहरी-देहरी जा रहे होंगे, सहेलियां आपस में थड्या-चौंफला नृत्य कर रही होंगी।)
भले ही इस गीत की मधुर ध्वनि कुमाऊँ क्षेत्र में कम सुनी जाती है लेकिन गढ़वाल क्षेत्र के घर-घर इस गीत की ध्वनि देहरी लांगकर यहाँ के लोगों के कानों को सुकून का एहसास कराकर प्रकृति के यौवन का संदेश पल्लवित करता है। यहाँ यह जानना भी जरूरी है कि दरअसल, इन पंक्तियों में जिस बुरांस के खिलने का जिक्र है, वह उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में मार्च माह में खिलना शुरू होता है। यहाँ हिमाचल का जिक्र इसलिए भी कर रहे हैं, क्योंकि मुग़ल इतिहास में माना जाता हैं कि शाहजहाँ की पत्नी मुमताज महल को बुरांस का फूल इतना पसंद था कि शाहजहां के द्वारा रानी मुमताज के लिए हर शुक्रवार शिमला (हिमाचल) से बुराँस के फूल मंगवाएं जाते थे।

उत्तराखण्ड के हरे-भरे जंगलों के बीच चटक लाल रंग के बुरांस के फूलों का खिलना पहाड़ में बसंत ऋतु के यौवन का सूचक है। इसलिए जब बुरांस खिलता है तो पहाड़ के जंगलों में बहार आ जाती है। बुरांस बसंत में खिलने वाला पहला फूल है, जो सफेद चादर के मध्य खिलते ही अपने सुर्ख लाल से मानो धरती के गले को पुष्पाहार कर देता है। एक गढ़वाली लोकगीत में बुराँश की जीवंतता दिखाई देती है….
फूलों की हंसुली
पय्याँ ,धौलू ,प्योंली,आरू
लया फूले बुरांस
(अर्थात पदम्,धौलू,प्योंली,आड़ू ,सरसों और बुरांस के फूल इस तरह खिले हुए हैं जैसे कोई दरांती हो।)
सचिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ लिखते हैं कि-“नई धूप में चीड़ की हरियाली दुरंगी हो रही थी और बीच-बीच में बुरूंश के गुच्छे गहरे लाल फूल मानों कह रहे थे-पहाड़ के भी हृदय हैं जंगल के भी हृदय हैं।”
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने संस्मरणों में बुरांश का बड़ा सुंदर वर्णन करते हुए लिखा है कि “पहाड़ियों में गुलाब की तरह बड़े-बड़े रोडोडेन्ड्रन ‘बुरूंश’ पुष्पों से रंजित लाल स्थल दूर से ही दिख रहे थे।”
छायावाद के चतुर्थ स्तम्भ में प्रसिद्ध प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत लाल बुरांश की छटा से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने कुमाऊंनी लोकभाषा में ‘बुराँस’ के बारे में लिखने से स्वयं को रोक न सके। वे लिखते हैं कि-
सारे जंगल में त्वे जस क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
फुलन छै के बुरांश,
जंगल जस जलि जांछ
सल्ला छू द्यार छू पयां छू अंयार छू सबनाक डालन में
पुंगनक भार छू,
तैमें दिलैकि आग,
त्वै में जवानिक फाग।
(अर्थात सारे जंगल में तेरे जैसा कोई नहीं है, तू फूलता क्या है कि जैसे जंगल ही जल जाता है। चीड़, देवदार, पद्म, अयार भी हैं, लेकिन यह शाखाओं के भार से ही लदे हैं, लेकिन तुझमें दिल की आग है, यौवन का रस है।)

बुराँश को जंगल की ज्वाला भी कहा जाता है। उत्तराखण्ड के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में बुराँश की महत्ता महज एक पेड़ और फूल से कहीं बढ़कर है। बुराँश उत्तराखण्ड के लोक जीवन में रचा-बसा है। बुराँश महज बसंत के आगमन का सूचक नहीं है, बल्कि सदियों से लोक गायकों, लेखकों, कवियों, घुम्मकड़ों और प्रकृति प्रेमियों की प्रेरणा का स्रोत रहा है। बुराँश उत्तराखण्ड के हरेक पहलु के सभी रंगों को अपने में समेटे है। कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने इस रक्त वर्णिम फूल को उत्तराखंड की उद्दाम जवानी का प्रतीक बताते हुए अपनी कविता में बुराँश का इस तरह परिचय दिया है —
खून को अपना रंग दिया बुरूंश ने।
बुरूंश ने सिखाया है फेफड़ों में हवा भरकर।
कैसे हंसा जाता है कैसे लड़ा जाता है।
ऊंचाई की हदों पर ठंडे मौसम के विरूद्ध।
एक बुरूंश कहीं खिलता है
खबर पूरे जंगल में आग की तरह फैल जाती है
आ गया बुरूंश पेड़ों में अलख जगा रहा है।
उजास और पराक्रम के बीज बो रहा है
बुरांश ने लाल होकर भी क्रान्ति के गीत नहीं गाए। वह हिमालय की तरह प्रशंसाओं से दूर एक आदर्शवादी बना रहा। फिर भी बुरांश ने लोगों को अपनी महिमा का बखान करने पर मजबूर किया है। बुराँश ने लोक रचनाकारों को कलात्मक उन्मुक्तता, प्रयोगशीलता और सौंदर्य बोध दिया। होली से लेकर प्रेम, सौंदर्य और विरह सभी प्रकार के लोकगीतों के भावों को व्यक्त करने का जरिया बनता रहा बुराँश। बुराँस के फूल के प्रति इतना आकर्षण व प्रेम होने के कारण बहुत से कवियों ने अपनी कविता में बुराँस के फूलों का वर्णन अलग-अलग ढ़ंग से किया हैं, जिसमें सुप्रसिद्ध कवि श्रीकांत वर्मा जी” ने अपनी रचना में बुरांश को कुछ इस तरह चित्रित किया हैं—
दुपहर भर उड़ती रही सड़क पर मुरम की धूल।
शाम को उभरा मैं तुमने मुझे पुकारा बुरुंश का फूल।

गढ़वाल के प्रसिद्व कवि चन्द्रमोहन रतूडी़ ने नायिका के होठों की लालिमा का जिक्र कुछ यूं किया है- “चोरिया कना ए बुरासन ओंठ तेरा नाराणा।” (अर्थात बुराँश के फूलों ने हाय राम तेरे ओंठ कैसे चुरा लिये।)

एक पुराने कुमाऊँनी लोकगीत में जंगल में झक खिले बुराँश को देख माँ को ससुराल से अपनी बिटिया के आने का भ्रम होता है। वह कहती है– “पारा भीडा बुरूंशी फूली छौ मैं ज कूंछू मेरी हीरू अरै छौ।” (अर्थात वहाँ उधर पहाड़ के शिखर पर बुरूंश का फूल खिल गया है। मैं समझी मेरी प्यारी बिटिया हीरू आ रही है। अरे! फूले से झक-झक लदे बुरूंश के पेड़ को मैंने अपनी बिटिया हीरू का रंगीन पिछौडा़ समझ लिया।)

एक गढ़वाली लोकगीत में मुखड़ी को फूल के समान बताया गया है तथा एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि प्रियतमा के सुंदर मुखड़े को देखकर बुरांशी जल रही है अर्थात ईर्ष्या कर रही है। लोकगीत में बुराँस का वर्णन इस प्रकार है–
बुरांश दादू तू बड़ा उतालू रे
औरू फूल तू फूलण नी देन्दो।
जाति का तू खास ठकरौल बास तेरी कै देवन हरी।
बालिया कूण सिर शोभी बालिया शिव सिर शोभी।
बालिया बुरांश जागा-जागा बालिया बुरांश लेऊ सिरा।

एक कुमाऊंनी लोकगीत में प्रेमीयुगल द्वारा बुरांश के फूल बन जाने की आकांक्षा भी व्यक्त की गई है। प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि चलो प्रिए बुरांश का फूल बन जाएं। चलो चम-चम चमकता हुआ पानी बन जाएं। गीत इस प्रकार है—
‘हिट रूपा बुरूंशी का फूल बनी जौला
चमचम मीठी तो डांडू का पानी जी जौंला।
हिलांस की जोड़ी बनी उड़ि उड़ि जौंला।

सुप्रसिद्ध कहानीकार मोहन लाल नेगी की कहानी ‘बुरांश की पीड’ की नायिका रूपदेई के मुख पर अगर किसी परदेशी ने देख लिया तो उसकी मुखड़ी शर्म से ऐसे लाल हो जाती थी जैसे उसके मुख पर बुरूंश का फूल खिल गया हो। पहाड़ में नायिका के कपोलों और होठों को परिभाषित करने के लिए बुरूंश एक प्रसिद्ध उपनाम है।

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