संजय कुंवर
जोशीमठ : सीमांत में फूलों की खेती से महक सकती है किसान की बगिया, आय दोगुनी होने से स्वरोजगार के साथ पलायन पर भी लगेगा ब्रेक, बस जरूरत है तो शासन – प्रशासन को पहले करने की।
उत्तराखंड एक कृषि प्रदेश है. यहां की मिट्टी गुणवत्ता खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है. लेकिन वर्तमान में पहाड़ों की खेती बाड़ी बागबानी पर जंगली जानवरों भालू, सुअरों के झुंड और लंगूर बंदरों की टोलियों के आतंक का साया बना हुआ है। जिसके चलते काश्तकार अब पारंपरिक खेती बाड़ी से परहेज करने लगे हैं,नतीजा पहाड़ों में पलायन के साथ जोत की जोत बंजर भूमि में तब्दील होने के कगार पर है। ऐसे में अगर पहाड़ का खास कर सीमांत क्षेत्र ज्योतिर्मठ का उन्नत शील काश्तकार, सेब, आलू,राजमा, शाक भाजी के साथ-साथ पुष्प उत्पादन यानी फूलों की खेती को भी अपना एक मुख्य व्यवसाय के रूप में अपनाते हैं, तो यह क्षेत्र में चलने वाली चारधाम यात्रा, बदरीनाथ धाम में सीजनल भागवत कथा, अभिषेक पूजन तीर्थाटन धार्मिक पर्यटन, शीतकालीन पर्यटन, सहित मठ मंदिरों देवालयों शादी ब्याह, मांगलिक कार्यों सहित अन्य आयोजनों में होने वाली फूलों की खपत को देखते हुए और आज के बदलते मौसमी फसल चक्र में काफी लाभदायक साबित हो सकता है.
दरअसल विषम परिस्थितियों के कारण अब धीरे – धीरे पहाड़ के किसानों का पारंपरिक खेती बाड़ी सहित बागवानी उद्यान से मोहभंग हो रहा है, ऐसे में पहाड़ों में विशेष कर सीमांत क्षेत्र जोशीमठ में फूलों की खेती की अपार संभावनाएं हैं. जरूरत है विभागीय स्तर पर एक ठोस योजना के साथ शुरूआत की जो क्षेत्र के काश्तकारों को फ्लोरी कल्चरल के इस नए कॉन्सेप्ट के प्रति जागरूक कर सके,
बता दें कि सूबे के पर्वतीय इलाकों में आज के वर्तमान हालातों में पारम्परिक खेती का लाभदायक साबित होना काफी मुश्किल काम हो चुका है, मगर विशेष आबोहवा और अलग भोगौलिक परिस्थितियों के चलते इन इलाकों में फूलों की खेती के लिए अपार संभावनाएं नजर आ रही हैं. प्रदेश सरकार इन दिखने वाली सम्भावनाओं को आगे बढ़ाने की एक प्रयास भर भी करे तो इससे पहाड़ की खासकर सीमांत क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को नया आयाम मिल सकता है. साथ ही हमारे पहाड़ बढ़ रहा पलायन पर भी लगाम लग सकती है.और रिवर्स पलायन के लिए फ्लॉरी कल्चर संजीवनी साबित हो सकता है।