केएस असवाल
गौचर : बिजराकोट के रावल देवता के देवरा यात्रा के तहत मंगलवार को हुए समुद्र मंथन कार्यक्रम को देखने के लिए क्षेत्र के लोगों की भारी भीड़ जुटी रही।
पिछले 22 नवंबर से शुरू हुई बिजराकोट के देवरा यात्रा ने 6 माह से अधिक समय में रूद्रप्रयाग, चमोली होते हुए बदरीनाथ भेंट करने के पश्चात वापसी में तमाम क्षेत्रों का भ्रमण हुए सोमवार को सारी क्षेत्र में पहुंची थी। मंगलवार को सारी क्षेत्र के अलकनंदा नदी तट पर हुए समुद्र मंथन कार्यक्रम में क्षेत्र की सैकड़ों की संख्या में पहुंचे लोगों ने देवताओं का आशीर्वाद ग्रहण किया। समुद्र मंथन से पूर्व देवताओं व अशुरों में हुए युद्ध में जब देवता अशुरों के हारमान की स्थिति में पहुंच जाते हैं। तब वे ब्रह्मा के पास जाते हैं और असुरों को पराजित करने का उपाय सुझाने का आग्रह करते हैं। तब ब्रह्मा उन्हें विष्णु भगवान की मदद से समुद्र मंथन की सलाह देते हैं। इसके लिए देवता असुरों को मनाने पहुंचते हैं। असुर इस सर्त पर राजी हो जाते हैं कि समुद्र मंथन से जो भी निकलेगा बराबर बांटा जाएगा। ऐरावत पर्वत को मथनी व शेषनाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन शुरू किया जाता है। मंथन में सबसे पहले कालकूट नामक द्रव्य निकलता है जिससे शिवजी को दिया जाता है। और वे हलक में डाल देते हैं दूसरी बार कामधेनु गाय निकलती है जिस ऋषि मुनियों को दिया जाता है। तीसरे मंथन में उच्चैअवा घोड़ा निकलता है जिसे राक्षस राज बली को दे दिया जाता है। चौथे मंथन में ऐरावत हाथी निकलता है। उसे देवराज इन्द्र को दिया जाता है। पांचवें मंथन में कौस्तुभ मणि निकलती है जिसे बिष्णु भगवान को समर्पित किया जाता है। छठवें मंथन में पारीजात वृक्ष निकलता है उसे देवताओं को दिया जाता है। सातवें मंथन में रम्भा अप्सरा निकलती है वह देवताओं के चली जाती है। आठवें मंथन में लक्ष्मी निकलती है। वह विष्णु भगवान के पा चली जाती है। नौवें मंथन में बारूणी मदिरा निकलती है उसे असुरों ने छीनकर पी लिया। दसवें मंथन में चंद्रमा की उत्पत्ति होती है उसे विष्णु भगवान को समर्पित किया जाता है। 11वें मंथन में पारिजात वृक्ष निकलता है।उस देवता रख लेते हैं। 12 वें पांचजन्य शंख निकलता है। विष्णु भगवान को समर्पित किया जाता है। 13 वें मंथन में सारंग धनुष निकलता है उसे विश्वकर्मा द्वारा ग्रहण किया जाता है। अंत में अमृत कलशके साथ धनंजय वैद्य की उत्पत्ति होती है लेकिन उसे असुर छीन लेते हैं तो देवता घोर संकट में फंस जाते हैं। तब वे पुनः भगवान विष्णु के पा जाते हैं और कहानी सुनाते हैं। तब भगवान विष्णु मोहनी का रूप धारण करते हैं और असुरों से अमृत लेकर स्वयं पिलाने की बात करते हैं। मोहनी पहले देवताओं को अमृत पिलाने लगती हैं तब तक सक होने पर राहु-केतु नाम का राक्षस देवताओं के भेष में अमृत का पान कर लेता है। विष्णु भगवान ने उसका सिर धड़ से अलग अर दिया इससे पुनः युद्ध छिड़ जाता है। इस प्रकार से देवताओं की जीत हो जाती है।