द्रोणागिरी: मुफलिसी में भी बेहतर ढंग से अपने दायित्वों का निर्वाहन कर रहा “याक सेवक” बसंत सिंह
संजय कुंवर,द्रोणागिरी घाटी
सुराईथोटा/जोशीमठ
भारत तिब्बत सीमा से लगे सीमांत चमोली जिले के जोशीमठ प्रखंड के दूरस्थ ऋतु प्रवासी पर्यटन गांव द्रोणागिरी के ग्रामीण जहां अब शीतकाल शुरू होने से पहले अपने निचले गीष्मकालीन प्रवासों में आने की तैयारियों में जुटे हुए हैं। वहीं इस खूबसूरत घाटी की रौनक बढ़ाने वाले और 1962 से पूर्व भारत तिब्बत बॉर्डर के पठारों के जहाज आकर्षक पालतू याकों (चंवर गाय) का झुंड द्रोणागिरी घाटी आने वाले पर्यटकों और ट्रेकरों की सारी थकान मिटा दे रहा है।
पथारोही तिब्बत बॉर्डर व्यापार की अंतिम निशानी के रूप में इन दुर्लभ याकों की एक झलक देख मंत्रमुग्ध हो रहे हैं ।आजकल इन याकों का झुंड द्रोणागिरी वैली के ट्रैक रूट पर विचरण करता हुआ ट्रेकरों को दिखाई दिया है। वहीं पशुपालन विभाग चमोली की ओर से इन याकों की निगरानी का जिम्मा स्थानीय “याक सेवक”बसंत सिंह डुंगरियाल को रखा है जो विषम परिस्थितियों में शीतकाल तक 12 माह इन याकों के झुंड की हिफाजत कर रहे हैं। साथ ही उन्हें नमक व चारा भी देते हैं। लेकिन इतनी मेहनत का काम और जान जोखिम में डाल कर इन याकों की देखभाल करने वाले बसंत सिंह को पशुपालन विभाग से बस शिकायत है तो ये कि उनके इस काम के एवज में जो मानदेय उन्हें दिया जाता है उसका तो समय पर भुगतान किया जाए। द्रोणागिरी घाटी से निचले इलाकों की और याकों के झुंड को ले जाते समय उन्होंने बताया कि पशुपालन विभाग उन्हें जो मानदेय देता है वो इस जोखिम भरे कार्य के सामने बहुत कम है लेकिन जो मिल रहा वो भी समय पर नही मिल रहा है करीब सालभर होने को है उन्हे अबतक मानदेय नहीं मिला है तो ऐसे में कैसे खाली हाथ भूखे पेट परिवार का पालन पोषण होगा? कैसे मैं इन याकों की देखभाल कर रहा में ही जानता हूं।
बता दें कि सीमांत जोशीमठ क्षेत्र की द्रोणागिरी वैली और इसके आसपास के जंगलों में इन याकों का झुंड आसानी से देखा जा सकता है, वही शीतकाल के दौरान भारी बर्फबारी होने पर यह झुंड निचले स्थानों सुराई थोटा सूकी लाता गांव के जंगलों तक पहुंच जाता हैं। हालांकि अभी इन याकों के कुनबे में जहां बीते छह सालों के दौरान 14 याक हिमस्खलन व आपदा में अपनी जान गवां चुके हैं।वहीं वर्ष 2019 में 11 मार्च को भार “हिमस्खलन“ के चलते द्रोणागिरी के जंगलों में आठ याकों की भी मौत हो गई थी। जबकि, वर्ष 2015 में छह याकों को तब जान गंवानी पड़ी, जब बर्फ से बचने के लिए वो द्रोणागिरी गांव की एक गोशाला में जा घुसे और भारी बर्फबारी से गोशाला जमींदोज हो गई। द्रोणागिरी घाटी में करीब 10 से 12 याक मौजूद हैं। इनकी देख-रेख के लिए एक स्थाई व एक संविदा कर्मचारी तैनात किया गया है। जो समय-समय पर याकों को नमक देकर उनकी भी देखभाल कर रहे हैं।
दरअसल वर्ष 1962 में नीती और माणा पास से भारत-तिब्बत की मंडियों में नमक, सीप, मूंगा समेत अन्य खाद्य पदार्थों का व्यापार चरम पर था। इन ऊंचे पठारी धूरों से तिब्बती व भोटिया जनजाति के व्यापारी इन्ही पालतू याकों से सामान के साथ आवागमन करते थे। क्यूंकि सीमांत क्षेत्र में ऊंचे पठारी बीहड़ धुरों में अत्याधिक ठंड व प्रतिकूल मौसम होने के कारण सामान ढोने के लिए घोड़ा-खच्चर या अन्य मालवाहक जानवरों का उपयोग नहीं हो पाता था।जबकि, याक को पठारी जहाज कहा जाता है, वहीं यहां की जलवायु में आसानी से रह सकते थे। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद इन ऊंचे पठारी धूरों से तिब्बत व्यापार बंद होने के बाद कुछ याक भारत-सीमा पर ही छूट गए। और कुछ याकों का स्थानीय लोगों ने भी व्यापार बंद होने के कारण छोड़ दिया था जो आज भी झुंड के रूप में द्रोणागिरी घाटी क्षेत्र में विचरण करते देखे जाते हैं।
क्या कहते हैं अधिकारी
जिला पशु चिकित्सालय अधिकारी डॉ. प्रलयंकर नाथ ने कहा कि पहले पीएडीपी योजना से वेतन दिया जाता था, जो अब बंद हो गई है। हम अन्य मद्दों से व्यवस्था कर रहे हैं, जल्द ही उनका एक मुश्त वेतन दे दिया जाएगा।