नवधान्य फार्म पर एक दिवसीय मिल्लेट्स महोत्सव संपन्न
देहरादून : नवधान्य जैव विविधता फार्म पर एक दिवसीय मिल्लेट्स महोत्सव का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में उत्तराखण्ड के टिहरी, रुद्रप्रयाग एवं देहरादून जनपदों के साथ मध्यप्रदेश के निवाड़ी के किसान और विदेशों के कुल ७० किसानों ने भागीदारी की।
इस अवसर पर नवधान्य की फाउंडर डायरेक्टर डॉ वंदना शिव ने कहा हमें प्रसन्नता है कि विगत ३० वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद हमारे किसानों द्वारा बचायी जा रही मिल्लेट्स की फसलों को देश-दुनिया में फिर से पहचान मिली है. हमारे देश में इन फसलों को उगाना और खाना एक अनिवार्यता बन गया है.
उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि जहाँ हमारे मध्य कुपोषण के साथ ही मधुमेह एवं ह्रदय रोग जैसी बीमारियाँ बढ़ रही हैं, ऐसे में ये भूले-बिसरे अनाज हमें पोषकता देने वाले और हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाले हैं. कि बाजरे में चावल की तुलना में ७ गुना अधिक कैल्सियम, झंगोरा में चावल की तुलना में ९ गुना अधिक खनिज होते हैं. चावल और गेहूं की तुलना करें तो मिल्लेट्स में कई गुना पोषक तत्व मिलते हैं. ये अनाज पोषक तत्वों के अच्छे विकल्प हैं. उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड के पहाड़ी आँचल में आयरन से भरपूर कोदो एवं झंगोरा की फसलें हमारे भोजन के मुख्य अंग थे. सफ़ेद गेहूं के आने के बाद एनीमिया यहाँ आम बीमारी हो गई है. उसी तरह से सत्तू मैदानी क्षेत्रों में गरीबों का पोष्टिक आहार था. डॉ शिवा ने बताया की मिल्लेट्स की फसलें उगाने में चावल की अपेक्षा बहुत कम पानी २५० मिमी/२५०० मिमी लगता है. इस तरह से मिलेट्स की फसलें जल संरक्षण के लिए भी महत्वपूर्ण हैं.
देशी बीज और फसलों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए नवधान्य संस्था ने देशभर में कृषक बंधुओं का नेतृत्व किया है. इन फसलों में मुख्यत: प्रसिद्ध देहरादूनी बासमती के साथ ही मंडुआ, कौणी, झंगोरा, बाजरा आदि शामिल हैं। ज्ञात हो कि ये फसलें हरित क्रांति के चलते एक तरह से भुला दी गई थी. इन फसलों का महत्त्व फिर से उभर कर सामने आया है. इसी महत्त्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2023 को मिलेत्ट्स का वर्ष घोषित किया गया है। नवधान्य की जैविक खेती आंदोलन और कृषि सुधारों में भी अहम् भूमिका रही है.
ओल्ड शिमला रोड पर स्थित रामगढ नामक गाँव के किनारे नवधान्य जैव विविधता संरक्षण, संवर्धन एवं प्रशिक्षण फार्म है. बीजा विद्यापीठ और अर्थ युनिवेर्सिटी के नाम से पहचान बना चुके इस अनुसन्धान केंद्र पर उत्तराखण्ड सहित देश एवं विदेश के हजारों किसान अभी तक प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं.
इस केंद्र की संस्थापिका पर्यावरणविद डॉ वंदना शिवा ने 30 से अधिक पुस्तकें और 300 से अधिक लेख दुनियाभर में प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें जैविक खेती एवं जैव विविधता संवर्धन के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राष्ट्रीय-स्तर के (वैकल्पिक नोबेल पुरस्कार/राइट लाइवलीहुड अवार्ड सहित ) कई पुरस्कार मिल चुके हैं।