चमोली के इस पर्यटन गांव की आतिथ्य सत्कार देख अभिभूत हुए आईएएस दल
संजय चौहान
इन दिनों चमोली जनपद में आईएएस, आईपीएस, आईआरएस प्रक्षिशु अधिकारियों का दो दल चमोली के गांवों और पर्यटक स्थलों के भ्रमण करनें पहुंचा है। जिसमें एक दल बद्रीनाथ से संतोपथ और दूसरा दल रामणी से औली के भ्रमण पर है। दल में तेलांगना, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्रप्रदेश और उत्तराखंड के प्रशिक्षु अधिकारी शामिल है। आज यह दल रामणी गांव से झींझी, पाणा होते हुये आज रात्रि विश्राम के लिए दुर्मी गांव पहुंचा है।
प्रशिक्षु अधिकारियों को भ्रमण करा रहे हिमालयन जर्नी के प्रबंधक दिनेश सिंह बिष्ट नें बताया की वो विगत पांच सालों से प्रशिक्षु अधिकारियों को चमोली के विभिन्न पर्यटक स्थलों और गांवो का भ्रमण करा रहें है। इस साल भी वो दो दलो को भ्रमण करा रहे है।
उन्होंने बताया की रामणी से 19 सदस्यीय प्रशिक्षु आईएएस, आईपीएस, आईआरएस अधिकारियों के दल को चमोली के गांवो की सुंदरता और लोकसंस्कृति इतनी भायी की वे अभिभूत हो गये।
खासतौर पर रामणी, झींझी व पाणा गांव इन्हें बेहद पंसद आया। दुर्मी ताल / बिरही ताल को देख आश्चर्यचकित रह गये।
चमोली के दूरस्थ गांवो में इन प्रशिक्षुओं का जो पारम्परिक रीति-रिवाज के साथ आतिथ्य सत्कार हुआ उससे हर कोई गदगद हो गया। इस दौरान उन्होंने गांवों में रहन सहन, खान पान और लोक संस्कृति का लुत्फ़ उठाया। खासतौर पर उन्हें पहाड़ी व्यंजन बेहद भाये। उन्होंने इसकी जमकर सराहना की।
कमिश्नर हेनरी रेमजे से लेकर लार्ड कर्जन को भायी थी रामणी की सुंदरता
स्कॉटिश मूल के कमिश्नर हेनरी रेमजे के बाद लार्ड कर्जन भी रामणी के मुरीद बने थे। ग्वालदम से तपोवन 200 किमी का ऐतिहासिक पैदल लार्ड कर्जन रोड भी इस गाँव से होकर जाता है। वर्ष 1899 में लार्ड कर्जन जब उत्तराखंड की यात्रा पर आए तो वे घाट विकासखंड के रामणी गांव में भी पहुंचे। रामणी गांव की प्राकृतिक सुंदरता उन्हें इतनी भायी कि लार्ड कर्जन ने कुछ समय यहीं गुजारा। आज भी लार्ड कर्जन का बंगला रामणी गांव में मौजूद है। तब उन्होंने इस क्षेत्र के विकास के लिए पैदल ट्रैक का निर्माण भी किया। ब्रिटिश व अन्य विदेशी पर्यटक अभी भी इस ट्रैक से गुजरकर क्षेत्र के दर्जनों पर्यटन स्थलों की सैर करने के लिए प्रतिवर्ष यहां आते हैं।
रामणी गाँव के परंपरागत पठाल के मकान बरबस ही लोगों को करते हैं आकर्षित!
गांव हो या शहर, हर जगह लोगों में चकाचौंध की ओर भागने की होड़ मची है। हर ओर कंक्रीट के जंगल नजर आते हैं। लेकिन इस सबके बीच जिले की सुदूरवर्ती गांव रामणी ने अपनी पहचान को मिटने नहीं दिया। यहां ग्रामीण आज भी सीमेंट-कंक्रीट के नहीं, बल्कि पारंपरिक पठालों (पत्थरों) के मकानों में ही रहना पसंद करते हैं।यहां के लोगों नें पठालों के मकानों को ही तवज्जो दी।यही वजह है कि 300 परिवारों वाले इस गांव में हर ओर पठालों के मकान ही नजर आते हैं। इन मकानों का फायदा सबसे बड़ा यह है कि बर्फबारी होने पर वह छतों पर नहीं टिकती। साथ ही मिट्टी व लकड़ी का प्रयोग होने के कारण वे गर्म भी रहते हैं। पठाल की छत वाले मकानों के निर्माण में स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलता है। इन मकानों के अंदर गर्मियों में शीतलता तो सर्दियों में गर्माहट का अहसास होता है। साथ ये मकान भूकंपरोधी भी होते हैं। मकान की नींव खोदकर मिट्टी और पत्थरों से भरा जाता है। चिनाई के बाद लकड़ी की बल्लियों पर लकड़ी चीर कर (तख्ते) बिछाई जाती है। उसके ऊपर घास और मिट्टी डाली जाती है। इसके बाद टॉप में पठाल बिछाई जाती है।