ग्लेशियरों के पिघलने से बढ़ता संकट
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
ग्लोबल वार्मिंग ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। नए शोध इस बात के प्रमाण हैं कि भले ही ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रोक दिया जाए, इसके बावजूद दुनिया में तकरीबन दो लाख पंद्रह हजार ग्लेशियरों में से आधे से ज्यादा और उनके द्रव्यमान का एक-चौथाई हिस्सा इस सदी के अंत तक पिघल जाएगा। बीती सदी में समुद्र के जल स्तर में जो बढ़ोतरी हुई है, उसका एक-तिहाई हिस्सा ग्लेशियरों के पिघलने से आया है। दरअसल ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्लेशियर पिघल-पिघलकर टुकड़ों में बंटते चले गए। इसका कारण पर्वतीय इलाकों में तापमान में बढ़ोतरी की दर दोगुना होना है। चिंता यह कि ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों से आने वाली बाढ़ से भारत समेत समूची दुनिया के तकरीबन डेढ़ करोड़ लोगों के जीवन पर खतरा मंडराने लगा है। ब्रिटेन की न्यू कैसल यूनिवर्सिटी के शोध से इसका खुलासा हुआ है। नेचर कम्युनिकेशंस नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के डेढ़ करोड़ लोगों में सबसे ज्यादा खतरा भारत के लोगों को है, जहां तीस लाख से ज्यादा लोगों का जीवन ग्लेशियर से आने वाली बाढ़ के कारण खतरे में है। इसके बाद पाकिस्तान का नम्बर है, जहां करीब 7000 से ज्यादा ग्लेशियर हिमालय, हिन्दूकुश और कराकोरम पर्वत शृंखलाओं में मौजूद हैं जहां की बीस लाख से भी ज्यादा आबादी पर यह खतरा मंडरा रहा है।शोधकर्ताओं की टीम के प्रमुख केरोलिन टेलर की मानें तो उनकी टीम के शोधकर्ताओं ने पूरी दुनिया में 1089 ग्लेशियर झीलों की घाटी की पहचान की है। इन ग्लेशियरों की घाटियों के 50 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों की तादाद शोधकतार्ओं ने 1.5 करोड़ आंकी है। यह आबादी भारत, पाकिस्तान, चीन और पेरू की है।रिपोर्ट के मुताबिक उपग्रह द्वारा साल 2020 में किए गए अध्ययन में बताया गया है कि बीते 30 सालों में ग्लोबल वार्मिंग में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण दुनिया के ग्लेशियरों से बनी झीलें टुकड़ों में बंट गयीं। दरअसल, तापमान में बढ़ोतरी और जलवायु में बदलाव को रोकने की दिशा में जो भी अभी तक प्रयास किए गये हैं, उनका कोई कारगर परिणाम सामने नहीं आ सका है। याद रहे जीवाश्म ईंधन जलाने से मानव इतिहास में जितना उत्सर्जन हुआ है, उसका आधा बीते केवल 30 सालों में ही हुआ है। यदि 2015 में जारी वैश्विक तापमान बढ़ोतरी के 10 सालों के औसत पर नजर डालें तो पता चलता है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व की तुलना में तापमान में 0.87 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई थी जो 2020 में यानी केवल पांच साल में ही बढ़कर 1.09 डिग्री सेल्सियस हो गई। केवल पांच साल में इसमें 25 फीसदी की बढ़ोतरी हालात की गंभीरता की ओर इशारा करती है।कानेंगी मेलन यूनिवर्सिटी और फेयरबैंक्स यूनिवर्सिटी के शोध के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन की दर इसी तरह बरकरार रही तो इस सदी के आखिर तक दुनिया के दो-तिहाई ग्लेशियरों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। यदि दुनिया आने वाले दिनों में वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने में कामयाब रहती है उस हालत में भी आधे ग्लेशियर गायब हो जायेंगे। लेकिन हमारे पास क्षमता है कि हम ग्लेशियर के पिघलने की दर को सीमित कर उसके अंतर को कम कर सकते हैं हालांकि छोटे ग्लेशियरों के लिए तो काफी देर हो चुकी है और वह विलुप्ति की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। समुद्र के जलस्तर में यदि 4.5 इंच की बढ़ोतरी होती है तो समूची दुनिया में तकरीबन एक करोड़ से अधिक लोग उच्च ज्वार रेखा से नीचे होंगे। तात्पर्य यह कि समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के अलावा बढ़ती मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बहुत बड़ा कारण है। ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। यदि यह पिघल गए तो ऐसी स्थिति में सारे संसाधन खत्म हो जाएंगे और ऐसी आपदाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी। केंद्र सरकार ने संसद में एक डरावनी रिपोर्ट पेश की है. इसमें बताया है कि हिमालय के ग्लेशियर अलग-अलग दर से पर तेजी से पिघल रहे हैं। साथ में यह भी माना कि जलवायु परिवर्तन की वजह से हिमालय की नदियां किसी भी समय प्राकृतिक आपदाएं ला सकती हैं। यानी कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्वी राज्यों तक हिमालय से आफत आ सकती है.सरकार की तरफ से दी गई रिपोर्ट पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी जांच-पड़ताल कर रही थी। वह यह देख रही है कि देश में ग्लेशियरों का प्रबंधन कैसे हो रहा है. अचानक से बाढ़ लाने वाली ग्लेशियल लेक आउटबर्स्टस को लेकिन क्या तैयारी है। खासतौर से हिमालय के इलाको में यह रिपोर्ट 29 मार्च 2023 को लोकसभा में पेश किया गया है। ग्लेशियर विज्ञानियों के लिए चुनौती तो स्थानीय आबादी के लिए बड़ा खतरा बन गए हैं। हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियर खतरनाक रूप से कम हो रहे है, वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार इसकी मुख्य वजह ग्लोबल वार्मिंग है। हिमालय श्रृंखला एक व्यापक पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र है, जो ग्लोबल वार्मिंग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। यह क्षेत्र दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में तेजी से गर्म हो रहा है। ट्रांस हिमालय, जो तिब्बती पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित है, विशेष रूप से हिमालय के बाकी हिस्सों की तुलना में तेज गति से गर्म हो रहा है। मानव निर्मित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, आल्स-एंडीज के साथ ही पृथ्वी के अन्य बर्फ आच्छादित क्षेत्रों के ग्लेशियरों को पिघलने का प्रमुख कारण बन चुके हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण सीमांत पिथौरागढ़ जिले का हिमालय क्षेत्र भी इससे बच नहीं पा रहे है। ग्लोबल वार्निंग व पिथौरागढ़ में अस्थिर मानव जनित विकास हिमालय की संवेदनशीलता को बढ़ा रहा है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में बढ़ता परिवहन, वनों की कटाई, बड़ी मात्रा में जीवाश्म ईधन का जलना, जंगलों व बुग्यालों में तीव्रता से बढ़ती आगजनी के घटनाएं, ग्लेशियरों के आस-पास बड़ी संख्या में मानवीय हस्तक्षेप, अन्य मानव गतिविधियों के बीच कार्बन डाइ ऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों की वायुमंडलीय साद्रता, ग्रह को गर्म करती है और ग्लेशियरों को पिघलाती है। वन क्षरण और जैव विविधता की हानि जलवायु परिवर्तन और आधुनिक कृषि विस्तार दोनों के साथ-साथ अन्य मानवजनित दबाव भी ग्लेशियरों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं। हिमनद का पीछे हटना, हिमनद झील का अधिक विस्तार और विस्फोट, तेजी से बर्फ पिघलना, वर्षा, सूखा और मरुस्थलीकरण, मौसम व वर्षा चक्र में बदलाव, फलदार पौधों में समय से पहले फूल-फल आना हिमालय के गर्म होने का संकेत है।हिमालयी क्षेत्र में वायुमंडलीय गर्मी के कारण हिमनद पीछे हटते है, झीलें बनती है। कई बार हिमालयी क्षेत्र में हिमखंड टूटकर इन झीलों में गिरते है,इससे बाढ़ की संभावना बढ़ती जा रही है, जो ना केवल एक पर्यावरणीय खतरा है बल्कि प्रभावित आबादी के लिए सामाजिक और आर्थिक कठिनाई का कारण भी हैं। ग्लोबल वार्निंग के कारण घास के मैदानों और जंगलों का विस्तार कम हो रहा है, जिसका जैव विविधता संरक्षण पर प्रभाव पड़ रहा है, यह परिवर्तन महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को प्रभावित करते हैं। दुनिया भर में, पहाड़ी ग्लेशियरों का खिसकना जलवायु परिवर्तन के सबसे स्पष्ट संकेतकों में से एक है। बाढ़ का खतरा कई पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों को है, लेकिन यह जोखिम विशेष रूप से हुआराज और साथ ही एंडीज और नेपाल, भारत और भूटान जैसे देशों में भी गंभीर है, जहां अधिकतर आबादी संभावित बाढ़ के पानी के रास्ते में रहते हैं। हिमालय में सर्दियों में एवलांच का टूटना अमूमन नहीं होता है। हिमालय परिक्षेत्र में एवलांच अक्सर गर्मियों में टूटते हैं। ग्लेशियर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि हिमालय में इस बार पिछले बीस सालों में सबसे गर्म है। जो तापमान मई या जून में होता है, वो इस बार जनवरी और फरवरी में दोपहर में हो रहा हैं। जिस कारण आगे भी ऐसी आपदायें हो सकती है। ग्लेशियरों और नदियों की निगरानी और उनके जलविद्युत व्यवहार को समझने के लिए वैज्ञानिक प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत है।