केदारनाथ की भीड़ बताती है हम नहीं सुधरे, सुरक्षित रखना है

Team PahadRaftar

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

केदारनाथ की भीड़ बताती है हम नहीं सुधरे, सुरक्षित रखना है

केदारनाथ त्रासदी को 10 वर्ष पूरे हो चुके हैं और इस कालखंड में केदारपुरी का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। अब तीर्थ यात्री पहले के मुकाबले कई गुना अधिक उत्साह से बाबा के दर्शनों और केदारपुरी के दिव्य एवं भव्य स्वरूप को निहारने आ रहे हैं। केदारनाथ हमारा धार्मिक स्थान है, लेकिन प्रभुजी कभी ये नहीं कहते कि बिल्कुल उमड़ पड़ो। अगर हमें जाना ही है तो पूरी सेफ्टी के साथ जाना चाहिए।

वहां के लिए भी और जहां से हम जा रहे हैं, उसके लिए भी। खासकर तब, जब हम पहले ही देख चुके हैं कि केदारनाथ में कितनी बड़ी त्रासदी हमने झेली थी। पहाड़ के ऊपर हमारे धार्मिक स्थल हैं, हमें वहां की भौगोलिक स्थिति का भी ध्यान रखना चाहिए। रजिस्ट्रेशन का काम प्रॉपर हो, भेड़ियाधसान नहीं होनी चाहिए। श्रद्धालु तो जाएंगे ही, लेकिन सरकार और प्रशासन को इस भीड़ को डिवाइड कर देना चाहिए। तय होना चाहिए कि एक बार में बस, इतने ही लोग जाएंगे. वे जब लौट जाएंगे तो ही दूसरे लॉट को जाने दिया जाएगा। यह काम भी बिल्कुल मंदिर के पास पहुंचकर न हो। रजिस्ट्रेशन का काम थोड़ी दूरी पर हो। जैसे, आज ही लगभग 10 हजार लोगों ने दर्शन किए हैं। पता कि वे सब के सब रजिस्टर्ड थे या नहीं ? लेकिन उपाय तो यही है कि भीड़ पर अंकुश लगाया जाए। उनको समय के अनुसार बांट दिया जाए। इससे जो लोग जा रहे हैं, उनको भी दिक्कत नहीं होगी और इससे दुर्घटना के भी आसार कम होंगे। पहाड़ों में तो यह भी कहावत है कि छींकना भी तो हाथ देकर, यानी छींको भी तो उसकी आवाज दूर तक न जाए। प्रदूषण चाहे ध्वनि का हो, या किसी भी तरह का, उससे सावधान रहने की हिदायत दी गई है। गरमी आते ही हम सब पहाड़ों की तरफ भागते हैं, लेकिन हम पहाड़ों की सैंक्टिटी का खयाल नहीं रखते। हम वहां इतनी चीजें अस्तव्यस्त कर देते हैं कि जिन चीजों से हम बचने आए थे, वही चीजें हम कर बैठते हैं। अब मान लीजिए कि 10 किलोमीटर का जाम है। केवल गाड़ियां रुकी हैं, हॉर्न बज रहे हैं, तो भी प्रदूषण का सोच कर देखिए। होगा तो वही जिस चीज के लिए हम भाग कर दूर जा रहे थे, वही चीजें हम वहां भी पैदा कर दे रहे हैं। प्रकृति के नजरिए से देखें तो पहाड़ों पर जाने के बाद हम पहाड़ों को वैसा ही क्यों नहीं छोड़ते? हम तो पहाड़ों को गंदा कर आते हैं। पहाड़ों की मर्यादा रखने के लिए हमें सिखाया जाता है कि अगर आप चॉकलेट भी खाएंगे तो उसका रैपर भी बैग में रखेंगे। यहां तक कि मल-मूत्र विसर्जन के बारे में भी प्रशिक्षित किया जाता है। हमे बाकायदा पॉटी बैग्स दिए जाते हैं. पहाड़ों पर इतनी बर्फ होती है कि कूड़ा कभी डिस्पोज नहीं होता। तो, रीयल माउंटेनियर तो ऐसा करते हैं। हालांकि, हम आजकल क्या देखते हैं? पहाड़ों पर हुड़दंगी भीड़ है। कोई पन्नी फेंक रहा है, कोई चिप्स खाने के बाद उसका रैपर फेंक दे रहा है। प्लास्टिक के बोतल और तमाम तरह का कूड़ा हम उन जगहों पर फेंक आते हैं। हमारे आने के बाद पहाड़ों के स्थानीय निवासियों और लोगों के लिए हम ज्यादा तकलीफ बढ़ा कर आते हैं।उसी तरह आगे जो टूरिस्ट जानेवाले हैं। उनके लिए भी मुश्किलें बढ़ती हैं। सख्त नियम बनने चाहिए, ताकि इस पर अंकुश लग सके। आखिर जब हालात बिल्कुल खराब हो जाएंगे, तब हम चेतेंगे क्या? लद्दाख का उदाहरण फॉलो करना चाहिए। वहां का सबसे ऊंचा पीक है-स्टोकांग. 6000 मीटर का समिट है। सागरमाथा (एवरेस्ट) पर चढ़ने से पहले लोग यहीं का समिट करते थे। अब लोगों ने उस पर इतना कूड़ा डाल दिया कि जब ग्लेशियर से पानी आता था तो उसमें कूड़ा, पन्नी वगैरह आने लगा। अब सरकार ने वहां 10 साल की रोक लगा दी है। अब वहां के लोकल लोग उस पूरे कचरे को समेट रहे हैं।तो, यह बेहद जरूरी है। इस तरह की सख्ती करनी ही होगी। केदारनाथ में जैसे पटाखे छोड़ने की घटनाएं हैं, तो ये बहुत घातक है। इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना कामों से पहाड़ों में एवलांच तक आ सकता है और अगर एक बार एवलांच आया तो कोई बच नहीं सकता है। रील के चक्कर में तो कई अपनी जान गंवा चुके हैं। इसके बावजूद लोग अगर नहीं चेत रहे तो सरकार को ही सख्ती बरतनी होगी। इस तरह के जो भी उपद्रवी तत्व हैं, उन पर पहली ही बार में सख्त कार्रवाई हो और आगे के लिए उसे नजीर बनाया जाए। ताकि बाकी लोग सीखें और वैसा कुछ करने से बचें। मनुष्य जब तक सीखेगा नहीं, पहाड़ भी उसे बख्शेंगे नहीं। आपको माउंट एवरेस्ट की बात बताऊं। वहां भी काफी कूड़ा हमने इकट्ठा कर दिया है। एक तो वहां पर्वतारोहियों के शव हैं, जो आए थे लेकिन रास्ते में ही जिनकी मौत हो गई। अब उनकी लाशें वहां पड़ी हैं. 350 लोगों से ज्यादा लाशें वहां उनके उपकरणों के साथ पड़ी हुई हैं। लगभग 8000 वर्ग मीटर के इलाके में अब ये दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। जो लोग वहां जाते हैं, वो भी चीजें वापस लौटा कर नहीं ला पाते। 2019 में तो माउंट एवरेस्ट में बड़ी दुर्घटना हुई थी। उसमें 11 लोगों की जान ब्लाइंड में खड़े रहने से हो गई थी। उसी समय एक फोटो भी वायरल हुई थी। एक लंबी लाइन थी, माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए. उस दुर्घटना से सबक लेकर ही नेपाल और चीन ने सख्त नियम बनाए और उनका पालन करवाना शुरू किया है। अब 160 लोगों को ही परमिट दिया जाता है। इससे बहुत चेंज आया है। अब मंजे हुए पर्वतारोही ही चढ़ते हैं। ट्रेनिंग के उनके कागजात भी अब पूरी तरह वेरिफाई करते हैं और शौकिया केवल पैसों के बल पर चढ़ने वालों की तादाद न के बराबर हुई है। ऐसे ही नियम हमें भी चाहिए एक्लेमेटाइजेशन यानी अनुकूलता. पहाड़ों पर जाने से पहले आपको अपने शरीर को एक्लेमेटाइज करना चाहिए। अब होता ये है कि लोग हेलिकॉप्टर से फ्लाई कर पहुंच जाते हैं। उनको थोड़ी-थोड़ी ऊंचाई पर एक्लेमेटाइज नहीं करवाया जाता है। अब उसका उपाय क्या निकाला हमनेएक गोली आती है- टाइमौक्स, वो गोली लोगों को दे देते हैं. इसके बाद कहा जाता है कि लोग जल्दी एक्लेमेटाइज हो जाएंगे। हालांकि, उसका साइड इफेक्ट ये होता है कि आपका खून एकदम पतला हो जाता है, तो हल्का सा भी कट लगने पर खून बहना बंद नहीं होता। इसलिए, लोग काफी वल्नरेबल हो जाते हैं। दूसरे, आल्टिट्यूज सिकनेस से भी आप बच नहीं सकते तो, लोगों को यह भी समझना चाहिए और एक्लेमेटाइज करके ही पहाड़ों पर जाना चाहिए। जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। केदारनाथ हों, लद्दाख हो या फिर जो भी पहाड़ी जगह हो, अगर अनट्रेंड होकर जाएंगे तो दिक्कतें पैदा होंगी ही। अगर आप धीरे-धीरे खुद से चढ़ कर, ट्रेक कर जाते हैं तो आपका शरीर एक्लेमेटाइज हो जाता है। वो जहां तक सरकारों का पहाड़ पर विकास करने की बात है, तो वह लोगों की सुविधा के लिए है, लेकिन बैलेंस करना बहुत जरूरी है। पहाड़ों का सम्मान अगर हम नहीं करेंगे तो प्रकृति हमारे साथ कभी भी वैसा ही बर्ताव कर सकती है। जो हम केदारनाथ से लेकर कई जगह की त्रासदियों में देख चुके हैं। अभी हाल ही में हमने जोशीमठ में भी देखा कि भूस्खलन की वजह से एक पूरी आबादी को किस तरह शिफ्ट करना पड़ा था। इसके बावजूद यह भीड़ कम नहीं हो रही है, लोग पहाड़ों के नियमों को स्वीकार नहीं रहे हैं ? कभी नहीं भूल सकता इस दिन देशभर के कई परिवारों ने अपनों को खोया। उत्तराखंड के केदारनाथ में आई प्राकृतिक आपदा ने कई लोगों की जिंदगी लील ली और कई लापता हो गए। जल प्रलय का दर्द लोगों के जहन में अब तक जिंदा हैं। दर्द पर मरहम की जगह सरकार ने नमक का काम किया है!

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

Next Post

गौचर : जिला अभिहित अधिकारी ने होटल कारोबारियों से कहा साफ - सफाई के साथ यात्रियों से मित्रवर व्यवहार रखें

केएस असवाल गौचर: जिला अभिहित अधिकारी चमोली अमिताभ जोशी द्वारा आज गौचर में होटल रेस्टोरेंट कारोबारियों के साथ यात्रा सीजन के संदर्भ में एक आवश्यक बैठक की गई। बैठक में होटल रेस्टोरेंट कारोबारियों को अपने प्रतिष्ठानों में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखने एवं अपने प्रतिष्ठानों में रेट लिस्ट फूड लाइसेंस […]

You May Like