भारत में भूले बिसरे मोटे अनाज की खेती की सुगबुगाहट
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
एक बड़ी कुपोषित आबादी की मुश्किल चुनौती से निपटने के लिए सबसे कारगर तरीका है मोटे अनाजों का सेवन।
हरित क्रांति से पहले यही अनाज जीवन आधार हुआ करते थे, लेकिन समय के साथ ये चलन से बाहर हो चुके हैं।
कभी हमारे आहार का जरूरी हिस्सा रहे ये मोटे अनाज आज उपेक्षित हैं। हमारे पुरखे इन्हीं अनाजों का सेवन करके
सर्दी, गर्मी और बरसात से बेपरवाह रहते थे। मोटे अनाजों के उत्पादन व उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिये कुछ
विशेष और बड़े प्रावधान भी रखे हैं। भारत के एक महानगर में पिछले साल एक स्वास्थ्य सम्बंधी सर्वेक्षण में
पाया गया था कि वहां के 80 प्रतिशत चिकित्सकों, वकीलों, व्यापारियों व शिक्षकों में लौह (आयरन),
मैग्नीशियम, जिंक, कैल्शियम, अमीनो एसिड्स और प्रोटीन सहित कई सूक्ष्म पोषक तत्वों की चिंताजनक रूप से
कमी है, क्योंकि उनकी भोजन की थाली में वे पदार्थ हैं ही नहीं, जिनमें स्वास्थ्य के लिये जरूरी ये सूक्ष्म तत्व
होते हैं। ये सभी तत्व ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, कोदो और कुटकी में बहुतायत से पाये जाते हैं, जो अभी हम
सबकी ‘फूड हैबिट्स’ में शामिल नहीं हैं।अब यह सिद्ध हो चुका है कि मोटे अनाज में वे सब औषधीय तत्व होते हैं
जो हृदय रोग, उच्च-रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा या अपचन जैसी व्याधियों पर नियंत्रण कर सकते हैं। कई अनुभवी
चिकित्सकों ने कहा है कि इन तत्वों की हमारे भोजन से अनुपस्थिति ही कई प्राणघातक बीमारियों का कारण है।
कुछ समय पहले तक तो ‘मोटे अनाज’ को गरीबों का भोजन मानते हुये सम्पन्न और अभिजात्य वर्ग ने अपनी
शान में गेहूं और चावल खाना शुरू किया, या अभी भी जारी रखा है। फिर साठ के दशक में आई ‘हरित क्रांति’ के
दौर में तो सरकारों ने भी गेहूं और चावल के उत्पादन बढ़ाने में ही अपने आप को केंद्रित कर लिया था। इस तरह
थाली से गायब हुये मोटे अनाज खेतों से भी गायब हो गये। यानी, इनका रकबा पूरी तरह से घट गया व गेहूं और
धान की बलि चढ़ गया।हम सब गेहूं और चावल खाने लगे। शहर हो या गांव, सब जगह से मोटा अनाज गायब ही
हो गया। परिणामस्वरूप जो बीमारियां पहले शहर की मानी जाती थीं वे गांवों और वनवासी क्षेत्रों में भी पहुंच
गईं।‘हरित क्रांति’ के जो भी लाभ रहे हों, या तत्काल हमें कुछ समस्याओं से निजात मिली भी होगी, लेकिन उसके
सारे नुकसान हमें अभी देखने को मिल रहे हैं। बौनी जाति की अधिक उत्पादन देने वाली विदेशी गेहूं और धान की
फसलें खेतों में छा गईं। इनके साथ ही रासायनिक खाद, कीटनाशक और अन्य कृषि रसायन बड़ी मात्रा में आ
गये। सिंचाई के बहुत बड़े-बड़े उपक्रम बने और उनके विपरीत प्रभावों का दुश्चक्र स्थाई रूप से हमारे देश में घर
कर गया।भारत में पानी का अभाव है। लगभग 76 प्रतिशत भारतीयों को स्वच्छ और सुरक्षित पानी अभी भी
नहीं मिल पाता है, जबकि 1 किलोग्राम गेहूं उत्पादन करने में लगभग 1000 लीटर पानी लगता है। वहीं 1
किलोग्राम चावल उत्पादन में 2500 लीटर पानी चाहिये। अति सिंचाई से हमारी कृषि योग्य भूमि की
उत्पादकता, गुणवत्ता और उर्वरता भी घट रही है।चुनावी राजनीति ने भी गेहूं और चावल को अपना ‘मोहरा’
बना रखा है। इनकी सरकारी खरीद वोट पाने की ‘गारंटी’ बन गई है। इसलिये भी खेतों में मोटे अनाज का
उत्पादन कम हो गया है। जबकि ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, रागी और कोदा, कुटकी कम सिंचाई, कम खर्च और
विपरीत मौसम में भी निश्चितता व विश्वास के साथ उगाई जा सकती है।मोटे अनाज के प्रति बदली दृष्टि और
बदले हुये सरकारी माहौल में इन फसलों के समर्थन मूल्य भी गेहूं और धान से अधिक हैं। गेहूं का न्यूनतम समर्थन
मूल्य जहां 1975 रुपये प्रति क्विंटल है, तो ज्वार का 2620, बाजरा का 2150 और रागी का 3295 रुपये प्रति
क्विंटल है। कोदो तो 150 रुपये से 200 रुपये प्रति किलो की दर से बिकती है। मोटा अनाज उपभोक्ता, उत्पादक
व जलवायु तीनों के लिए अच्छा माना गया है। ये पौष्टिक होने के साथ कम पानी वाली सिंचाई से भी उगाए जा
सकते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि कुपोषण मुक्त और टिकाऊ भविष्य बनाने के लिये मोटे अनाज की अहम
भूमिका होगी और इसके लिए देशों को मिलकर काम करने की आवश्यकता है।मोटे अनाज को प्रोत्साहन
वर्तमान समय की मांग भी है क्योंकि यह अनाज आधुनिक जीवन शैली में बदलाव के कारण सामने आ रही कई
बीमारियों व कुपोषण को रोकने में सक्षम है। केंद्र सरकार ने मोटा अनाज वर्ष को सफल बनाने के लिए काफी
समय पूर्व से ही तैयारियां प्रारंभ कर दी थीं और अब यह सफलतापूर्वक धरातल पर उतरने को तत्पर हैं। मोटा
अनाज वर्ष को सफल बनाने के लिए केंद्र सरकार कई योजनाएं लेकर आई है। राशन प्रणाली के तहत मोटे
अनाजों के वितरण पर जोर दिया जा रहा है। आंगनबाड़ी और मध्यान्ह भोजन योजना में भी मोटे अनाजों को
शामिल कर लिया गया है। प्रधानमंत्री मन की बात कार्यक्रमों में मोटे अनाजों से बने व्यंजनों का उल्लेख करते
रहते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि अब ”मोटा अनाज, खाओ और प्रभु के गुण गाओ” का नारा खूब
चलने वाला है। मोटा आनाज पोषण का सर्वश्रेष्ठ आहार कहा जाता है। मोटे अनाज में 7से12 प्रतिशत
प्रोटीन,65 से 75 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट और 15 से 20 प्रतिशत डायटरी फाइबर तथा 5 प्रतिशत तक वसा
उपलब्ध रहता है जिसके कारण यह कुपोषण से लड़ने में सक्षम पाया जाता है। मोटे अनाज का आयुर्वेद में भी
बहुत महत्व है। इस तरह किसान भी यदि मोटे अनाज की तरफ जाता है तो वह भी लाभ में ही
रहेगा।प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ में मोटे अनाज की बात छेड़कर एक दुश्चक्र से देश को निकालने की
शुरुआत की है। अब हमें इस परिवर्तन को स्वीकार कर मानना है कि व्यक्ति के रूप में हमारे हितों के साथ निसर्ग
और पर्यावरण का हित भी इसमें निहित है। आज जब विश्व का बड़ा हिस्सा कुपोषण से लड़ रहा है सनातन
भारत की मोटे अनाज वाली थाली समाधान के रूप में देखी जा रही है। उदार चरित और वसुधैव कुटुम्बकम के
सिद्धांत वाले भारत के मोटा अनाज वर्ष के प्रस्ताव की महत्ता को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने इसे स्वीकार किया
और अब हम सभी का उत्तरदायित्व है कि हम अपने अपने स्तर पर इसे सफल बनाने के लिए प्रयास करें।भारत
सरकार मोटे अनाज की खेती का दायरा बढ़ाने पर बल दे रही है। मोटा अनाज वर्ष के माध्यम से एक साथ कई
लक्ष्यों को साधा जा सकता है। मोटा आनाज के प्रति जागरूकता बढ़ने से जहां ज्वार, बाजरा आदि की खेती का
रकबा बढ़ेगा वहीं कुपोषण की समस्या का भी समाधन कुछ सीमा तक संभव हो पायेगा। राष्ट्रीय स्तर पर इन
अनाजों की पसंद और उपज स्थायित्व कैसे बढ़ेगा? इसीलिए, वर्षा की बदलती परिस्थितियों के प्रति चावल
उत्पादन की संवेदनशीलता से अवगत कराते हुए किसानों को चावल के साथ-साथ मोटे अनाज की मिश्रित
फसलों के लिए प्रोत्साहित करना बेहतर विकल्प हो सकता है।अध्ययनकर्ताओं में शामिल इंडियन बिजनेस
स्कूल, हैदराबाद ने सुझाव दियाहै कि “खाद्य उत्पादन को जलवायु परिवर्तन से पूरी तरह सुरक्षित रखना
मुश्किल है। किसानों को जलवायु के अनुकूल अनाज उत्पादनकी ओर स्थानांतरित करने के लिए प्रोत्साहित
करना इस दिशा में एक आसान पहल हो सकती है। जिस तरह चावल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए सार्वजनिक
नीति और सार्वजनिक खरीद पर अमल किया गया, उसी तरह हम इसका उपयोग अनाज उत्पादन में विविधता
लाने के लिए भी कर सकते हैं।