उत्तराखंड में पारम्परिक फसल सोयाबीन – डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

Team PahadRaftar

उत्तराखंड में पारम्परिक फसल सोयाबीन

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड में खरीफ की प्रमुख तिलहनी फसल सोयाबीन एवं भट्ट (काली सोयाबीन) है।
ग्रामीण, पिछड़े तथा जनजातीय समुदायों को पोषण और आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने में ये फसलें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।पर्वतीय क्षेत्रों में इन फसलों के
उत्पादन में वृद्धि की अपार संभावनाएं हैं।परंतु समस्या यह है कि किसान अधिक उत्पादकता पर्याप्त करने के लिए उपयोगी उन्नत प्रजातियों तथा वैज्ञानिक तकनीकों से
अनभिज्ञ हैं। इसके साथ ही उन्नत किस्मों के गुणवत्तायुक्त बीजों की प्रायः अनुपलब्धता के कारण स्थानीय किस्मों को पारंपरिक कृषि पद्धतियों के साथ उगाने को विवश हैं।
इन क्षेत्रों में सोयाबीन और भट्ट के उत्पादन से आर्थिक लाभ मिलता है। उत्तर-पश्चिमी हिमालयी पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में सोयाबीन एक महत्वपूर्ण खरीफ फसल है। यहां यह
लगभग 12 हजार हैक्टर क्षेत्रफल में उगाई जाती है। यह राज्य समस्त उत्तर-पश्चिमी राज्यों में सोयाबीन के क्षेत्रफल एवं उत्पादन में क्रमशः 95 प्रतिशत एवं 94 प्रतिशत का
योगदान देता है। सोयाबीन की भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान में, सोयाबीन का क्षेत्रफल10.91 मिलियन हैक्टर तथा इसका उत्पादन और उत्पादकता क्रमशः10.37 मिलियन टन और 951 कि.ग्रा./हैक्टर  है।

खाद्य तेलों में, सोयाबीन का तेल सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाले तेलों में से एक है। हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी, शहरीकरण एवं बढ़ती जनसंख्या के कारण
खाद्य तेलों एवं तैलीय-खली की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही  है। पिछले तीन दशकों से भारत में तिलहन उत्पादन में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है।

तिलहन उत्पादन 1980-81 में 9.39 मिलियनटन था, जो 2016-17 में बढ़ कर 31.27 मिलियन
टन हो गया है। खाद्य तेलों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1970-71 में 3.5 कि.ग्रा./व्यक्ति/वर्ष थी जो वर्तमान में बढ़कर 17 कि.ग्रा./व्यक्ति/वर्ष हो गई है। सोयाबीन की फसल 1970 के दशक तक कम ही जानी जाती थी, पर आज यह भारत में एक महत्वपूर्ण तिलहनी फसल के रूप में उभरी है। सोयाबीन में प्रोटीन एवं तेल की भरपूर मात्रा होने के कारण आज पूरे विश्व में खाद्य तेल एवं पौष्टिक आहारों के
लिए यह एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसके अतिरिक्त, उत्तराखंड में भट्‌ट, वर्षाश्रित फसल के रूप में साढ़े छह हजार हैक्टर क्षेत्रफल में उगाई जाती है, जिससे 5.2 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है। भारत में सोयाबीन की खेती शुरू होने के काफी समय पहले से ही काली सोयाबीन को भट्‌ट, भटमान, भट्‌टमाश, रामकुल्थी, कालीतूर और कालाहुल्गा आदि अनेक नामों से उगाया जाता था।

उत्तराखंड में भट्‌ट की उत्पादकताल गभग 798 कि.ग्रा./ हैक्टर है, जो कि राज्य में सोयाबीन की उत्पादकता (1293 कि.ग्रा./हैक्टर) से काफी पीछे है। हिमालयी पर्वतीय क्षेत्रों में इसे दाल के रूप में प्रयोग किया जाता है। हमारे देश में भट्‌ट की खेती पर्वतीय क्षेत्रों के आम ग्रामीण, जनजातीय और पिछड़े लोगों तक ही सीमित है, जहां पोषण व खाद्य सुरक्षा के बहुत ही कम विकल्प मौजूद हैं।पर्वतीय क्षेत्रों में सोयाबीन व भट्ट का उत्पादन पिछले 10-15 वर्षों से लगभग स्थिर है। वर्तमान में पर्वतीय क्षेत्रों में इन फसलों के उत्पादन स्तर और मांग में अंतर आर्थिक दृष्टि से पिछड़े ग्रामीण तथा जनजातीय

समुदाय की पोषण और आजीविका सुरक्षा के लिए एक चुनौती है। इन क्षेत्रों में इस फसल के उत्पादन में वृद्धि की अपार संभावनाएं हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में सोयाबीन एवं
भट्‌ट की खेती परंपरागत रूप से छोटे और सीमांत कृषकों द्वारा की जाती है। ये फसलें पर्वतीय क्षेत्रों की जलवायु तथा पारंपरिक फसल प्रणाली के बेहद अनुकूल हैं, जहां ये पूर्ण
रूप से सोयाबीन की परिपक्व फलियां जैविक वर्षाश्रित स्थितियों में उगाई जाती हैं।

पर्वतीय क्षेत्रों में सोयाबीन एवं भट्‌ट के उत्पादन को बढ़ाने के लिए एक बहुमुखी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। कृषि विकास संस्थाओं की पहल इन फसलों के उत्पादनस्तर और आवश्यकता के अंतर को काफी कम कर सकती है। सोयाबीन एवं भट्‌ट की उत्पादन तकनीकी के तीव्र प्रसार के लिए राज्यव्यापी प्रदर्शनों के लिए राज्य के हर विकासखंड से कुछ गांवों को अंगीकृत किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त राज्य में सोयाबीन तेल निष्कर्षण तथा सोयाबीन आधारित उद्योगों की स्थापना आवश्यक है।

मूल्यवर्धित उत्पादों का विकास एवं प्रशिक्षण भी पर्वतीय क्षेत्रों के कृषकों का रुझान सोयाबीन व भट्ट की व्यावसायिक खेती की ओर बढ़ा सकता है। खेत छोटे और जोत
बिखरी हुई है। सिंचाई की सुविधा न के बराबर है। इस सबके चलते पर्वतीय अंचलों में खेती में किसान सामान्यत: परंपरागत कृषि तकनीकी का ही प्रयोग करते हैं। यही वजह
है कि पर्वतीय क्षेत्र आज भी हरित क्रांति के प्रभाव से अछूता रहा है। यही नहीं, पहाड़ में विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण कृषि उत्पादन भी काफी कम है, जबकि वहां
जीवन निर्वाह का मुख्य साधन खेती ही है। बता दें कि पर्वतीय क्षेत्र में होने वाली खेती पूरी तरह जैविक है। खेती में गोबर एवं कंपेास्ट का प्रयोग होने से यहां उत्पादित होने वाली फसलें पौष्टिकता से लबरेज हैं। खासकर, मंडुवा, झंगोरा, चीणा, दलहनी फसलों तोर, उड़द, नौरंगी, मसूर, गहथ, तिलहन में सोयाबीन, भट्ट, तिल, तोडिय़ा और सरसों की खासी मांग भी है। हालांकि, प्राचीन एवं परंपरागत तकनीकी के कारण पहाड़ में इन फसलों की उत्पादकता काफी कम है। साफ है कि परंपरागत तकनीकी में आधुनिक कृषि तकनीकी का समावेश कर इन फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की जा सकती है। इससे कृषकों की आय में वृद्धि होने से उनके जीवन स्तर में भी सुधार आ सकेगा। इसी मंशा के साथ परंपरागत खेती को बढ़ावा देने की पहल की गई है।

कृषि विभाग के मुताबिक इस कड़ी में राज्य में करीब साढ़े पांच सौ कलस्टर में इस योजना को धरातल पर उतारा जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि कृषि महकमा पूरी मुस्तैदी और गंभीरता से इस योजना को धरातल पर उतारेगा, ताकि पहाड़ की खेती की तस्वीर संवर सके।

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