उत्तराखंड राज्य गठन से शुरू हुआ उधार का सिलसिला अब भी जारी
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड सीमित संसाधनों वाला प्रदेश है। इसके साथ ही आय बढ़ाने वाले विकल्पों पर भी ठोस काम नहीं हो पाया। जिसके चलते सरकार वेतन व अन्य मदों में खर्च के लिए कर्ज लेती रहती है। कर्ज लेने का जो सिलसिला राज्य
गठन के समय से शुरू हुआ था, वह कम होने के बजाय निरंतर बढ़ता चला गया।प्रदेश पर कर्ज का मर्ज बढ़ता जा रहा है। बीते साल की अपेक्षा कर्ज के ग्राफ़ में अब तक तीन हजार करोड़ रुपये से अधिक की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। हालांकि, इस वित्तीय वर्ष में राज्य सरकार ने 1700 करोड़ रुपए की कर्ज अदायगी भी की है।आज हालात यह हो
गए हैं कि कर्ज बढ़ते-बढ़ते 80 हजार करोड़ रुपए को पार कर गया है। पिछले वित्तीय वर्ष में यह आंकड़ा 77.23 हजार करोड़ रुपए था। वित्त सचिव के मुताबिक, प्रदेश की जरूरतों की पूर्ति के लिए पूर्व में 10 हजार करोड़ रुपए का प्राविधान किया गया था।हालांकि, समय के साथ इतनी जरूरत महसूस न होने पर आठ हजार करोड़ की ही
जरूरत महसूस हुई। इसमें से भी तीन हजार करोड़ रुपए के ही कर्ज की जरूरत अब तक प्रदेश को हुई। इसके अलावा
1700 करोड़ रुपए की कर्ज/ब्याज अदायगी भी की है। इस तरह अब तक कर्ज की स्थिति 80 हजार करोड़ रुपए के करीब सिमटी हुई है। यदि इस वित्तीय वर्ष के समाप्ति तक राज्य एक हजार करोड़ और भी कर्ज लेता है तो कर्ज की स्थिति पर खास असर नहीं पड़ेगा।कैग की पिछली रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य पर कर्ज के साथ ब्याज अदायगी भारी पड़ रही है। अनुमान के मुताबिक प्रदेश को वर्ष 2025 तक कर्ज और उसके ब्याज के रूप में औसतन 4499.82 करोड़
रुपए का सालाना भुगतान करना पड़ेगा। यह भी एक बड़ा कारण है कि नियमित रूप से कर्ज में कुछ न कुछ भुगतान किए जाने के बाद भी आंकड़ा कम नहीं हो रहा है। ‘वादे तो झूठे निकले हैं, दावे भी खोखले फिर भी है कुर्सियों पर
सियासत तो देखिए, तब्दीलियों के नाम पर कुछ भी नया नहीं बनने को बन गई है सियासत को देखिए।
बल्ली सिंह ‘चीमा’ की लिखी गजल की ये लाइनें उत्तराखंड के हालातों पर सटीक बैठती हैं। लंबे जनसंघर्ष और 42
कुर्बानियों के बाद मिले अलग राज्य में विकास कार्य तो हुए लेकिन पलायन, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य के
सवाल ज्वलंत बने हुए हैं। प्रदेश में बेरोजगारी दर में इजाफा हुआ है। एक कर्ज उतारने के लिए दूसरा कर्ज ले रहा
उत्तराखंड, 22 सालों बाद भी हालात चिंताजनक 22 सालों बाद भी उत्तराखंड राज्य कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है।
साल दर साल राज्य पर कर्ज का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। आलम यह है कि हर बार राज्य सरकार को कर्ज चुकाने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे में जिस उद्देश्य के साथ राज्य का गठन किया गया था, वो सपना अभी भी अधूरा लग रहा है। एक कर्ज उतारने के लिए दूसरा कर्ज ले रहा उत्तराखंड, 22 सालों बाद भी हालात चिंताजनक सकल
पर्यावरणीय उत्पाद को विकास का मानक बनाने को लेकर राज्य ने घोषणा कर देश में पहल की। अगर ऐसा हुआ तो राज्य को विकास के लिए और संसाधनों की मदद मिल सकेगी। पर्वतीय प्रदेश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि पहाड़ों से रोजी-रोटी की तलाश में वहां की आबादी बढ़ी संख्या में मैदानों और दूसरे राज्यों की ओर रूख कर रही है। सीमित
संसाधनों और दिशाहीन विकास के चलते सभी पहाड़ी जनपद पलायन की जद में हैं। सरकार के विकास को लेकर दावों से जनता का विश्वास उठ चुका है।