प्रकृति को आभार दर्शाते पारंपरिक पर्व ‘फूलदेई

Team PahadRaftar

प्रकृति को आभार दर्शाते हुए पारंपरिक पर्व ‘फूलदेई

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

देवभूमि उत्तराखंड की परंपरा और प्रकृति को संजोए उत्तराखंड का पारंपरिक त्योहार 14 मार्च यानि कि आज से शुरू हो चुका है और यह 8 दिनों तक चलेगा। यह त्योहार उत्तराखंड समृद्ध सांस्कृतिक विरासत
का अहम हिस्सा है। फूलदेई उत्तराखंडी परम्परा और प्रकृति से जुड़ा सामाजिक, सांस्कृतिक और लोक- पारंपरिक त्योहार है, जो चैत्र संक्रांति -चैत्र माह के पहले दिन से शुरू होकर अष्टमी (आठ दिन) तक चलता
है। इसे गढ़वाल में घोघा कहा जाता है। पहाड के लोगों का जीवन प्रकृति पर बहुत निर्भर होता है, इसलिए इनके त्यौहार किसी न किसी रुप में प्रकृति से जुड़े होते हैं। प्रकृति ने जो उपहार उन्हें दिया है, उसे वरदान
के रूप में स्वीकर करते हैं और उसके प्रति आभार वे अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रकट करते हैं। यह त्योहार बसंत ऋतु के स्वागत का प्रतीक है, चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिल जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बसंत के आगमन पर बुरांस और गांव आडू, खुबानी के गुलाबी-सफेद रंगों से सराबोर हो जाते हैं।प्रकृति से जुड़ा खास त्योहार है फूलदेई, फ्योंली के बिना अधूरा माना जाता है। पर्व देवभूमि उत्तराखंड को कुदरत ने खूबसूरत प्राकृतिक संपदाओं से नवाजा है। यहां के कई तीज त्योहार प्रकृति से जुड़े हैं।जिनमें फूलदेई का त्योहार भी शामिल है। यह त्योहार खासकर बच्चों और फूलों से जुड़ा है। फूलों
में फ्योंली का अहम स्थान है। जिसके बिना यह त्योहार अधूरा माना जाता है। प्रकृति से जुड़ा
खास त्योहार है फूलदेई, फ्योंली के बिना अधूरा माना जाता है पर्व देवभूमि उत्तराखंड को कुदरत
ने खूबसूरत प्राकृतिक संपदाओं से नवाजा है। यहां के कई तीज त्योहार प्रकृति से जुड़े हैं। जिनमें
फूलदेई का त्योहार भी शामिल है। यह त्योहार खासकर बच्चों और फूलों से जुड़ा है। फूलों में
फ्योंली का अहम स्थान है। जिसके बिना यह त्योहार अधूरा माना जाता है। उत्तराखण्ड यूं तो
देवभूमि के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है, इस सुरम्य प्रदेश की एक और खासियत यह है कि यहां के निवासी बहुत ही त्योहार प्रेमी होते हैं। जटिल परिस्थितियों, रोज एक नई परेशानी से रुबरु होने,जंगली जानवरों के आतंक और दैवीय आपदाओं से घिरे रहने के बाद भी यहां के लोग हर महीने में एक त्योहार तो जरुर ही मना लेते हैं।इनके त्योहार किसी न किसी रुप में प्रकृति से जुड़े होते हैं। प्रकृति ने जो उपहार उन्हें दिया है, उसके प्रति आभार वे अपने लोक त्योहारों में उन्हें अपने से समाहित कर चुकाने का प्रयास करते हैं।इसी क्रम में चैत्र मास की संक्रान्ति को फूलदेई के रुप में मनाया जाता है। जो बसन्त ऋतु के स्वागत का त्योहार है। इस दिन छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्योली/फ्यूंली, बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं और एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल,हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर लोकगीतों को गाते हुए जाते हैं और देहरी का पूजन करते हुए गाते हैं।

फ़ूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई।
इस दिन से लोकगीतों के गायन का अंदाज भी बदल जाता है, होली के फाग की खुमारी में डूबे
लोग इस दिन से ऋतुरैंण और चैती गायन में डूबने लगते हैं। ढोल-दमाऊ बजाने वाले लोग
जिन्हें बाजगी, औली या ढोली कहा जाता है। वे भी इस दिन गांव के हर घर के आंगन में
आकर इन गीतों को गाते हैं। जिसके फलस्वरुप घर के मुखिया द्वारा उनको चावल, आटा या
अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है।बसन्त के आगमन से जहां पूरा पहाड़
बुरांस की लालिमा और गांव आडू, खुबानी के गुलाबी-सफेद रंगो से भर जाता है। वहीं चैत्र
संक्रान्ति के दिन बच्चों द्वारा प्रकृति को इस अप्रतिम उपहार सौंपने के लिये धन्यवाद अदा
करते हैं। इस दिन घरों में विशेष रुप से पकवान बनाकर आपस में बांटा जाता है। बसंत की अगुवाई
वाले अनेक किवदंतियों से जुड़े उत्तराखंड के चैत्रमास में मनाए जाने वाले फूलदेई त्योहार के इस
पावन पर्व के दिन से ही हिंदू शक संवत आरंभ होता है। यही वह ऋतु है जहां से सृष्टि ने
अपना श्रंगार करना शुरू किया तथा मानव के ह्रदय में कोमलता का वास उत्पन्न हुआ। गांवों से
शहरों को बढ़ते पलायन तथा शहरीकरण से जंगलों का सफाया होने से प्रकृति का हास तथा देश-
विदेश के विभिन्न भागों में प्रवासरत उत्तराखंड के प्रवासियों की नई पीढ़ी का अपनी स्मृद्ध
परम्पराओं से अनभिज्ञ होने से प्रकृति से जुड़े फूलदेई त्यौहार पर भी प्रभाव पड़ा है। ऐसे में
सुखद लगता है, यह देख, पहाड़ के गांवों में आज भी नौनिहालों द्वारा फूलदेई की पारंपरिक
परिपाठी को संजोए रख उस परिपाठी को जिंदा रखना तथा प्रवास मे निवासरत कुछ प्रवासी
उत्तराखंडी संगठनों द्वारा प्रकृति से जुड़े फूलदेई त्यौहार के संरक्षण व संवर्धन हेतु अग्रसर रहना।
प्रकृति से जुड़ा तथा गढ़-कुमांऊ की अनूठी सामाजिक तथा पारंपरिक संस्कृति का प्रतीक
हिमालयी पावन ऋतुपर्व फूलदेई उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पारंपरिक तौर पर बाल पर्व के रूप में पीढी दर पीढ़ी चैत्र संक्रांति के दिन मनाया जाता है। कुछ स्थानों मे यह पर्व आठ दिनों तक
व टिहरी के कुछ इलाकों में एक माह तक मनाए जाने की परंपरा रही है। नैनीताल जिले के
भतरोज व कोस्या के इलाके में इस बाल पर्व को वैशाखी के दिन मनाए जाने की परंपरा रही है।
फ्योली को ससुराल में मायके की याद आने लगी. अपने जंगल की याद आने लगी. दूसरी तरफ
उसके बिना जंगल के पेड़ पौधें मुरझाने लगे और जानवर उदास रहने लगे. फ्योली की सास उसे

मायके नहीं जाने देती थी। जिस कारण मायके की याद में फ्योलीं ने दम तोड़ दिया। ससुराल
वालों ने उसे पास में ही दफना दिया। कुछ दिनों बाद जहां पर फ्योली को दफनाया गया था उस
स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था। उस फूल का नाम राजकुमारी के नाम से
फ्योली रख दिया। तब से पहाड़ों में फ्योंली की याद में फूलों का त्योहार मनाया जाता है
इस त्योहार को लेकर यह लोक में प्रचलित कहानी है। पुराणों में वर्णित है कि शिव शीतकाल में
अपनी तपस्या में लीन थे ऋतू परिवर्तन के कई वर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी।
माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई बर्ष शिव के तंद्रालीन होने से बेमौसमी
हो गए। आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली। कविलास में सर्वप्रथम फ्योंली के पीले फूल
खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे
दिया। फिर सभी से कहा कि वह देवक्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश
को महकाए। सबने अनुसरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किए
गए जिसे फुलदेई कहा गया। साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में
बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आए
महाराज। शिव की तंद्रा टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न मन
इस त्योहार में शामिल हुए तब से पहाड़ों में फुलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा जिसे आज भी अबोध बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढे-बुजुर्ग करते हैं। सतयुग से लेकर वर्तमान तक इस परम्परा का निर्वहन करने वाले बाल-ग्वाल पूरी धरा के ऐसे वैज्ञानिक हुए
जिन्होंने फूलों की महत्तता का उदघोष श्रृष्टि में करवाया तभी से पुष्प देव प्रिय। जनप्रिय और
लोक समाज प्रिय माने गए। पुष्प में कोमलता है अत: इसे पार्वती तुल्य माना गया। यही कारण
भी है कि पुष्प सबसे ज्यादा लोकप्रिय महिलाओं के लिए है जिन्हें सतयुग से लेकर कलयुग तक आज भी महिलाएं आभूषण के रूप में इस्तेमाल करती हैं। बाल पर्व के रूप में पहाड़ी जन-मानस में प्रसिद्ध फूलदेई त्योहार से ही हिन्दू शक संवत शुरू हुआ फिर भी हम इस पर्व को बेहद हलके में लेते हैं
जहाँ से श्रृष्टि ने अपना श्रृंगार करना शुरू किया जहाँ से श्रृष्टि ने हमें कोमलता सिखाई जिस बसंत की अगुवाई में कोमल हाथों ने हर बर्ष पूरी धरा में विदमान आवासों की देहरियों में पुष्प वर्षा की उसी धरा के हम शिक्षित जनमानस यह कब समझ पायेंगे कि यह
अबोध देवतुल्य बचपन ही हमें जीने का मूल मंत्र दे गया फूल देई (फूलसंग्राद)की हार्दिक
शुभकामनाएं।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत  हैं

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